SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 333
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० छक्खंडागमे खुदाबंधी [२, ६, १. जाव उप्पजमाणखेत्तं ति आयामेण एगपदेसमादि कादूण जावुक्कस्सेण सरीरतिगुणबाहल्येण कंडेक्कखंभट्ठियत्तोरण-हल-गोमुत्तायारेण अंतोमुहुत्तावट्ठाणं मारणंतियसमुग्धादो णाम । उववादो दुविहो- उजुगदिपुव्यओ विग्गहगदिपुचओ चेदि । तत्थ एक्केक्कओ दुविहो- मारणंतियसमुग्धादपुयओ तबिवरीदओ चेदि । तेजासरीरं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं चेदि । अणुकंपादो दक्खिणंसविणिग्गयं डमर-मारीदिपसमक्खमं दोसयरहिदं सेदवणं णव-बारहजोयणरुंदायामं पसत्थं णाम, तबिवरीदमियरं । आहारसमुग्धादो णाम हत्थपमाणेण सव्यंगसुंदरेण समचउरससंठाणेण हंसधवलेण रस-रुधिरमांस-मेदहि-मज-सुक्कसत्तधाउववजिएण विसाम्गि-सत्यादिसयलबाहामुक्केण वज्ज-सिलाथंभ-जलपचयगमणदच्छेण सीसादो उग्गएण देहेण तित्थयरपादमूलगमणं । दंड-कवाडपदर-लोगपूरणाणि केवलिसमुग्घादो णाम | अप्पप्पणो उप्पण्णगामाईणं सीमाए अंतो परिभमणं सत्थाणसत्थाणं णाम । तत्तो बाहिरपदेसे हिंडणं विहारवदिसत्थाणं णाम । तत्थ 'णेरइया अप्पणो पदेहि केवडिखेत्ते होति' त्ति आसंकासुत्तं । एवमासंकिय उत्तर अपेक्षा अपने अपने अधिष्ठित प्रदेशसे लेकर उत्पन्न होने के क्षेत्र तक, तथा बाहल्यसे एक प्रदेशको आदि करके उत्कर्षतः शरीरस तिगुण प्रमाण जीवप्रदेशोक काण्ड, एक खर स्थित तोरण, हल व गोमूत्रके आकारसे अन्तर्मुहूर्त तक रहनेको मारणान्तिकसमुद्घात कहते हैं । (देखो पुस्तक १, पृ. २९९)। उपपाद दो प्रकार है- ऋजुगतिपूर्वक और विग्रहगतिपूर्वक । इनमें प्रत्येक मारणांतिकसमुद्घातपूर्वक और तद्विपरीतके भेदसे दो प्रकार है। तैजसशरीर प्रशस्त और अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकार है। उनमें अनुकम्पासे प्रेरित होकर दाहिने कंधेसे निकले हुए, राष्ट्रविष्ठव और मारी आदि रोगविशेषके शान्त करनेमें समर्थ, दोष रहित, श्वेतवर्ण, तथा नौ योजन विस्तृत एवं बारह योजन दीर्घ शरीरको प्रशस्त, और इससे विपरीतको अप्रशस्त तैजसशरीर कहते हैं। हस्तप्रमाण, सर्वाङ्गसुन्दर, समचतुरस्त्रसंस्थानसे युक्त, हंसके समान धवल; रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा और शुक्र, इन सात धातुओंसे रहित; विष, अग्नि एवं शस्त्रादि समस्त बाधाओंसे मुक्त वज्र, शिला, स्तम्भ, जल व पर्वतमेंसे गमन करनेमें दक्ष; तथा मस्तकसे उत्पन्न हुए शरीरसे तीर्थकरके पादमूलमें जानेका नाम आहारकसमुद्घात है। दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणरूप जीवप्रदेशोंकी अवस्थाको केवलिसमुद्घात कहते अपने अपने उत्पन्न होने के ग्रामादिकोंकी सीमाके भीतर परिभ्रमण करनेको स्वस्थानस्वस्थान और इससे बाह्य प्रदेशमें घूमनेको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं। उनमें नारकी जीव अपने पदोंसे कितने क्षत्रमें रहते हैं' यह आशंकासूत्र है। इस प्रकार शंका करके ............................. १ प्रति 'दमर-मारीदिपसमक्खमा दृ दोसयरहिदं ', मप्रती 'दमरमारीदिदोसक्खमा दोसयरहिदं' इति पाटः। २ प्रतिषु ' णवारह ' इति पाठः। ३ प्रतिपु सथल- ति पाठ: । ४ प्रति 'पञ्चय- ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy