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________________ ३०२ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ६, २. मेत्तुवक्कमणकालुवलंभादो च ? ण, तत्थ संखेज्जजोयणमेत्तमारणंतियखेत्तायामदसणादो। पढमपुढवीए वि विग्गहगईए कधं मारणंतियजीवाणमसंखेज्जजोयणायाम मारणंतियखेत्तमुवलब्भदे ? ण, असंखेजसेडिपढमवग्गमूलमेत्तायाममारणंतियखेत्तजीवाणं बहुआणमणुवलंभादो । तेण विदियपुढविदव्ये पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवकमणकालेण भागे हिदे एगसमएण मरंतजीवाण पमाणं होदि । पुगो एदेसिमसंखेज्जदिभागो मारणंतिएण विणा कालं करेदि, बहुआणं सुहपाणीणमभावादो असंखेज्जा भागा मारणंतियं करेंति । मारणंतियं करेंताणमसंखेज्जदिभागो उजुगदीए मारणंतियं करेदि, अप्पणो द्विदपदेसादो कंडुज्जुवखेत्तम्हि उप्पज्जमाणाणं बहुआणमणुवलंभादो । विग्गहगदीए मारणंतियं करेंताणमसंखेज्जदिभागो मारणतिएण विणा विग्गहगदीए उप्पजमाणरासी होदि, तेण मरंतजीवाणं असंखेज्जे भागे मारणंतियकालभंतरउपक्कमणकालेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तेण गुणिदे मारणंतियकालम्हि संचिदरासिपमाणं होदि । पुणो तम्भुहवित्थारण णवरज्जुगुणेण गुणिदे मारणंतियखेत्तं होदि । भागमात्र उपक्रमणकालकी भी उपलब्धि है ? समाधान-नहीं, क्योंकि वहां संख्यात योजनमात्र मारणान्तिक क्षेत्रका आयाम देखा जाता है। शंका-तो फिर प्रथम पृथिवीमें भी विग्रहगतिमें मारणान्तिक जीवोंका असंख्यात योजन आयामवाला मारणान्तिक क्षेत्र कैसे उपलब्ध होता है ? (देखो पु.४, पृ. ६३-६४) समाधान-नहीं, क्योंकि, असंख्यात श्रेणियों के प्रथम वर्गमूलमात्र आयामवाले मारणान्तिक क्षेत्र में बहुत जीवोंकी अनुपलब्धि है। __इसलिये द्वितीय पृथिवीके द्रव्यमें पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालका भाग देनेपर एक समयसे मारणान्तिक जीवोंका प्रमाण होता है । पुनः इनके असंख्यातवें भागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घातके विना ही कालको करते हैं, तथा वहां बहुत पुण्यवान् प्राणियोंका अभाव होनेसे असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव मारणान्तिकसमुद्घातको करते हैं । मारणान्तिकसमुद्घात करनेवालोंके असंख्यातवें भागमात्र ऋजुगतिसे मारणान्तिकसमुद्घात करते हैं, क्योंकि, अपने स्थित प्रदेशसे बाणके समान ऋजु क्षेत्र में उत्पन्न होनेवाले बहुत जीव नहीं पाये जाते । विग्रहगतिसे मारणान्तिक समुद्घातको करनेवालोंके असंख्यातवें भागप्रमाण मारणान्तिकके विना विग्रहगतिसे उत्पन्न होनेवाली राशि है, इस कारण मरनेवाले जीवोंके अंसख्यात बहुभागको आवलीके असंख्यातवें भागमात्र मारणान्तिककालके भीतर उपक्रमणकालसे गुणित करनेपर मारणान्तिककालमें संचित राशिका प्रमाण होता है। पुनः उसे नौराजुगुणित मुखविस्तारसे गुणा करनेपर मारणान्तिक क्षेत्र होता है। यहां भी पांच लोकोका अपवर्तन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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