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१९८] छक्खंडागमे खुदाबंधौ
[२, ३, ३५. दोसाभावादो। णत्थि अंतरमिदि वयणं पज्जवडियणयद्विदसिस्साणमणुग्गहकारयं, विहिदो वदिरित्तपडिसेहे चेव वावदत्तादो । गिरंतरमिदि वयणं दबट्ठियसिस्साणुगाहयं, पडिसेहबदिरित्तविहीए पदुप्पायणादो । सेसं सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥३५॥
एगवारपुच्छादो चेव सयलत्थपरूवणासंभवादो किमट्ठ पुणो पुणो पुच्छा कीरदे ? ण इमाणि पुच्छासुत्ताणि, किंतु आइरियाणमासंकियवयणाणि उत्तरसुत्तुप्पत्तिणिमित्ताणि, तदो ण दोसो त्ति ।
जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ३६ ।। सुगमं ।
उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुब्बकोडिपुत्तेणब्भहियाणि ॥३७॥
वचन पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेवाले शिष्योंका अनुग्रहकारी है, क्योंकि यह वचन विधिसे रहित प्रतिषेध व्यापार करता है । 'निरन्तर है' यह वचन द्रव्यार्थिक शिष्योंका अनुग्राहक है, क्योंकि वह प्रतिषेधसे रहित विधिका प्रतिपादक है ।
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ३५ ॥
शंका-केवल एक वार प्रश्न करके समस्त अर्थका प्ररूपण किया जा सकता था, फिर वार वार यह प्रश्न क्यों किया जाता है ?
समाधान-ये पृच्छासूत्र नहीं हैं, किन्तु आचार्योंके आशंकात्मक वचन हैं जिनका कि निमित्त अगले सूत्रकी उत्पत्ति करना है। इसलिये यह वार वार प्रश्न करना कोई दोष नहीं है। ___कमसे कम क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल तक एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३६ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपमप्रमाण काल तक एकेन्द्रिय जीवोंका अन्तर होता है ॥ ३७॥
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