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________________ २, ६, १०२.1 खेत्ताणुगमे लेस्सामगणा ओधिदंसणी ओधिणाणिभंगो ॥ ९९ ॥ केवलदसणी केवलणाणिभंगो ॥ १० ॥ एदाणि तिण्णि वि सुत्ताणि सुगमाणि । लेस्साणुवादेण किण्हलेस्सिया णीललेस्सिया काउलेस्सिया असंजदभंगो ॥ १०१ ॥ कुदो ? सत्थाणसत्थाण-वेदण-कसाय-मारणंतिय-उववादेहि सबलोगे अट्ठाणेण; विहारवदिसत्थाण-वेउव्वियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेजदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे अवट्ठाणेण च साधम्मियादो । णवरि उव्यिय तिरियलोगस्स असंखेज्जादेभागे । तमेत्थ अप्पहाणं । तेउलेस्सिय-पम्मलेस्सिया सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १०२॥ सुगमं । अवधिदर्शनियोंका क्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान है ॥ ९९ ॥ केवलदर्शनियोंका क्षेत्र केवलज्ञानियोंके समान है ॥ १० ॥ ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं। लेश्यामार्गणानुसार कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतलेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र असंयतोंके समान है ॥ १०१ ।। __ क्योंकि, स्वस्थानस्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपाद, इन पदोंकी अपेक्षा सर्व लोको अवस्थानसे; तथा विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भागमें, एवं अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें अवस्थानसे उपर्युक्त लेश्यावाले जीवोंकी असंयत जीवोंसे समानता है। विशेष इतना है कि वैक्रियिकसमुद्धातकी अपेक्षा उक्त जीव तिर्यग्लोकके असंख्यातवे भागमें रहते हैं । किन्तु वह यहां अप्रधान है। तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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