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________________ १५२ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंधों [२, २. ९८. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ९८ ॥ अणप्पिदजोगादो अप्पिदजोगं गंतूण उक्कस्सेण तत्थ अंतोमुहुत्तावट्ठाणं पडि विरोहाभावादो। कायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९९ ॥ किमहमेत्थ एगवयणणिद्देसो कदो ? ण एस दोसो, एगनी मोत्तूण बहूहि जीवेहि एत्थ पओजणाभावादो । जहण्णेण अंतोमुहत्तं ॥ १०० ॥ अणप्पिदजोगादो कायजोगं गदस्स जहण्णकालस्स वि अंतोमुहु तपमाणं मोत्तूण एगसमयादिपमाणाणुवलंभादो । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्रं ॥ १०१ ॥ अणप्पिदजोगादो कायजोगं गंतूण तत्थ सुट्ट दीहद्धमच्छिय कालं करिय एइंदियसु उप्पप्णस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिदस्स कायजोगुकिस्सकालुवलंभादो । ___ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी रहते हैं ॥ ९८॥ ___ क्योंकि, अविवक्षित योगसे विवक्षित योगको प्राप्त होकर उत्कर्षस वहां अन्तमुहूर्त तक अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है। जीव काययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ ९९ ॥ शंका-यहां एकवचनका निर्देश किस लिये किया ? समाधान--- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, एक जीवको छोड़कर बहुत जीवास यहां प्रयोजन नहीं है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक जीव काययोगी रहता है ॥ १० ॥ क्योंकि, अविवक्षित योगसे काययोगको प्राप्त हुए जीवके जघन्य कालका प्रमाण अन्तर्मुहूर्तको छोड़कर एक समयादिरूप नहीं पाया जाता। अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक जीव काययोगी रहता है ॥ १०१॥ । क्योंकि, अविवक्षित योगसे काययोगको प्राप्त होकर और वहां अतिशय दीर्घ काल तक रहकर कालको करके एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुए जीवके आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करते हुए काययोगका उत्कृष्ट काल पाया जाता है। १ प्रतिषु — होंति ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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