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________________ २, २, १०६.] एगजीवेण कालाणुगमे कायजोगिकालपरूवणं (१५३ ओरालियकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०२ ॥ सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ १०३॥ मणजोगेण वचिजोगेण वा अच्छिय तेसिमद्धाखएण ओरालियकायजोगंगद-. विदियसमए कालं कादूण जोगंतरं गदस्स एगसमयदसणादो। उक्कस्सेण बावीसं वाससहस्साणि देसूणाणि ॥ १०४ ॥ बावीसवाससहस्साउअपुढवीकाइएसु उप्पज्जिय सव्वजहण्णेण कालेण ओरालियमिस्सद्धं गमिय पज्जत्तिंगदपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तणवावीसवाससहस्साणि ताव ओरालियकायजोगुवलंभादो। . ओरालियमिस्सकायजोगी वेउब्वियकायजोगी आहारकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०५॥ जहण्णेण एगसमओ ॥ १०६ ॥ जीव औदारिककाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १०२ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम एक समय तक जीव औदारिककाययोगी रहता है ॥ १०३ ॥ क्योंकि, मनोयोग अथवा वचनयोगके साथ रहकर उनके कालक्षयसे औदारिककाययोगको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मरकर योगान्तरको प्राप्त हुए जीवके एक समय देखा जाता है। ____ अधिकसे अधिक बाईस हजार वर्षों तक जीव औदारिककाययोगी रहता है ॥ १०४॥ क्योंकि, बाईस हजार वर्षकी आयुवाले पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न होकर सर्व जघन्य कालसे औदारिकमिश्रकालको विताकर पर्याप्तिको प्राप्त होने के प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष तक औदारिककाययोग पाया जाता है। जीव औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और आहारककाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १०५॥ कमसे कम एक समय तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है॥१०६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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