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________________ १५४ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [२, २, १०७. ओरालियकायजोगाविणाभाविदंडादो कवाडंगदसजोगिजिणम्हि ओरालियमिस्सस्स एगसमओ लम्भदे, तत्थ ओरालियमिस्सेण विणा अण्णजोगाभावादो । मण-वचिजोगेहितो वेउव्यियजोगंगदविदियसमए मदस्स एगसमओ वेउब्धियकायजोगस्स उवलम्भदे, मुदपढमसमए कम्मइय-ओरालिय-वेउब्बियमिस्सकायजोगे मोत्तूण वेउब्धियकायजोगाणुवलंभादो । मण-वचिजोगेहितो आहारकायंजोगंगदबिदियसमए मुदस्स मूलसरीरं पविट्ठस्स वा आहारकायजोगस्स एगसमओ लब्भदे, मुदाणं मूलसरीरपविट्ठाणं च पढमसमए आहारकायजोगाणुवलंभादो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०७ ॥ मणजोगादो वचिजोगादो या वेउब्धिय-आहारकायजोगं गंतूण सबुक्कसं अंतोमुहत्तमच्छिय अण्णजोगं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो, अणप्पिदजोगादो ओरालियमिस्सजोगं गंतूण सबुक्कस्सकालमच्छिय अण्णजोगं गदस ओरालियमिस्सस्स अंतोमुहुत्तमेत्तुक्कस्सकालुवलंभादो । सुहुमेइंदियअपज्जत्तएसु वादरेइंदियअपज्जत्तएसु च औदारिककाययोगके अविनाभावी दण्डसमुद्घातसे कपाटसमुहातको प्राप्त हुए सयोगी जिनमें औदारिकमिश्रका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, उस अवस्थामें औदारिकमिश्रके विना अन्य योग पाया नहीं जाता । मनोयोग या वचनयोगसे वैक्रियिककाययोगको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए जीवके वैक्रियिककाययोगका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, मर जाने के प्रथम समय में कार्मणकाययोग, औदारिकमिश्रकाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगको छोड़कर वैक्रियिककाययोग पाया नहीं जाता । मनोयोग अथवा वचनयोगसे आहारककाययोगको प्राप्त होने के द्वितीय समयमें मृत्युको प्राप्त हुए या मूल शरीरमें प्रविष्ट हुए जीवके आहारककाययोगका एक समय पाया जाता है, क्योंकि, मृत्युको प्राप्त या मूल शरीर में प्रविष्ट हुए जीवोंके प्रथम समयमें आहारककाययोग पाया नहीं जाता। ___ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव औदारिकमिश्रकाययोगी आदि रहता है ॥ १०७ ॥ __क्योंकि, मनोयोग अथवा वचनयोगसे वैक्रियिक या आहारककाययोगको प्राप्त होकर सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है, तथा अविवक्षित योगसे औदारिकमिश्रयोगको प्राप्त होकर व सर्वोत्कृष्ट काल तक रहकर अन्य योगको प्राप्त हुए जीवके औदारिकमिश्रका अन्तमुहूर्तमात्र उत्कृष्ट काल पाया जाता है। शंका-सूक्ष्म एकन्द्रिय अपर्याप्तोंमें और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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