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________________ २, २, १११.] एगजीरेण कालाणुगमे काय जोगिकालपरूवणं [१५५ सत्तट्ठभवग्गहणाणि णिरंतरमुप्पण्णस्स बहुओ कालो किण्ण लब्भदे ? ण, ताओ सव्याओ ट्टिदीओ एक्कदो कदे वि अंतोमुहुत्तमेत्तकालुबलं भादो।। वेउब्बियमिस्सकायजोगी आहारमिस्सकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १०८ ॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १०९ ॥ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? ण, एत्थ मरण-जोगपरावत्तीणमसंभवादो । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ११०॥ सुगमं । कम्मइयकायजोगी केवचिरं कालादो होदि ? ॥ १११ ॥ आठ भघग्रहण तक निरन्तर उत्पन्न हुए जीवके बहुत काल क्यों नहीं पाया जाता? समाधान--नहीं पाया जाता, क्योंकि, उन सब स्थितियों को इकट्ठा करने पर भी अन्तर्मुहूर्तमात्र काल पाया जाता है। जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी कितने काल तक रहता है ? ।। १०८॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी रहता है ॥ १०९ ॥ शंका -- यहां एक समयमा जघन्य काल क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि, यहां मरण और योगपरावृतिका होना असम्भव है। अधिकसे आधिक अन्तर्मुहत काल तक जीव क्रियिकमिश्रकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी रहता है ।। ११० ॥ यह सूत्र सुगम है। । जीव कार्मणकाययोगी कितने काल तक रहता है ? ॥ १११ ॥ Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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