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________________ [३५३ २, ६, ९०.] खेत्ताणुगमे णाणमग्गणा लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८७ ॥ सत्थाण-विहारवदिसत्थाणेहि चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागं माणुसखेतस्स संखेज्जदिभागं च मोत्तूणुवरि पुसणस्साभावादो । समुग्घादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८८ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा ॥ ८९॥ ___ दंडगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । कवाडगदा तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, तिरियलोगस्स संखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । पदरगदा लोगस्स असंखेज्जेसु भागेसु । लोगपूरणे सव्वलोगे। उववादं णत्थि ॥ ९० ॥ अपज्जत्तकाले केवलणाणाभावादो । केवलज्ञानी जीव स्वस्थानसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८७॥ स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा चार लोकोंके असंख्यासवें भाग और मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागको छोड़कर ऊपर स्पर्शनका अभाव है। समुद्घातकी अपेक्षा केवलज्ञानी जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। समुद्घातकी अपेक्षा केवलज्ञानी जीव लोकके असंख्यातवें भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ? ॥ ८९ ॥ दण्डसमुद्घात केवलज्ञानी चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और अढ़ाईद्वीपसे असंख्थातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। कपाटसमुद्घातगत केवलज्ञानी तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें, तिर्यग्लोकके संख्यातवे भागमें, और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्र में रहते हैं। प्रतरसमुद्घातगत केवल ज्ञानी लोकके असंख्यात बहुभागोंमें रहते हैं। लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोकमें रहते हैं। केवलज्ञानियोंके उपपाद पद नहीं होता ।। ९० ॥ क्योंकि, अपर्याप्तकालमें केवलज्ञानका अभाव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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