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________________ ३५५] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ६, ९१. संजमाणुवादेण संजदा जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदा अकसाईभंगो ॥ ९१ ॥ एसो दव्वट्ठियणिद्देसो । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे विसेसो अत्थि तं वत्तइस्सामो । तं जहा-- सत्थाण-विहारबदिसत्थाण-वेयण-कसाय-वे उव्विय-तेजाहारसमुग्धादगदा संजदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । मारणंतियसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तादो असंखेज्जगुणे । केवलिसमुग्धादगदा (लोगस्स असंखेज्जस्भिागे) असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा। एवं जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं वत्तव्यं । णवीर तेजाहारपदाणि णस्थि ।। सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा संजदासजदा मणपज्जवणाणिभंगो ॥ ९२ ।। एसो व्यट्ठियणिद्देसो । पज्जवट्ठियणए अवलंबिज्जमाणे पुण अस्थि विसेसो । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसाय-बेउब्धिय-तेजाहारपदेहि सामाइय .......................................... संयममार्गणानुसार संयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत जीवोंका क्षेत्र अकपायी जीवोंके समान है ? ॥ ९१ ॥ यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करनेपर जो विशेषता है उसे कहते हैं । वह इस प्रकार है-स्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषाय समुद्घात, वैक्रियिकसमुद्घात, तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्धातको प्राप्त संयत जीव चार लोकोंके असंख्यातवे भागमें और मानु क्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। मारणान्तिकसमुद्धातको प्राप्त उक्त जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें और मानुषक्षेत्रसे असंख्यातगुणे क्षत्रमें रहते हैं। केवलिसमुद्धातको प्राप्त वे ही संयत जीव (लोकके असंख्यातवें भागमें ), अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सर्व लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंका क्षेत्र भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके तैजस और आहार पद नहीं होते। समायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंका क्षेत्र मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ।। ९२ ॥ यह कथन द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे है। पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है । वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमुद्धात, कषायसमुद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, तेजससमुद्धात और आहारकसमुद्धात, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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