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________________ ३५२ ] छक्खंडागमे खुद्दाबंध [२, ६, ८३. उववादं णत्थि ॥ ८३ ॥ एदेसि दोहं णाणाणमपज्जत्तकाले संभवाभावादो । आभिणिवोहिय-सुद-ओधिणाणी सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ ८४॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ८५ ॥ एदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- सत्थाणसत्थाण-विहारवदिसत्थाण-वेयण-कसायवेउब्धिय मारणंतिय-उववादगदा एदे चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणे । एवं तेजाहारपदेसु वि । णवरि माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे । केवलणाणी सत्थाणेण केवडिखेत्ते ? ॥८६॥ सुगमं । विभंगज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ ८३ ॥ क्योंकि, अपर्याप्तकाल में इन दोनों शानोंकी संभावना नहीं है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ८५ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदनासमद्धात, कषायसमद्धात, वैक्रियिकसमुद्धात, मारणान्तिकसमुद्धात और उपपादको प्राप्त ये उपर्युक्त जीव चार लोकोंके अंसख्यातवें भागमें और अढ़ाई द्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार तैजससमुद्घात और आहारकसमुद्घात पदोंमें जानना चाहिये । विशेष इतना है कि इन पदोंकी अपेक्षा मनुष्यक्षेत्रके संख्यातवें भागमें रहते हैं। केवलज्ञानी जीव स्वस्थानकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ३४ ॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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