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________________ २, ३, १३९. ] सुगमं । जहणेण पलिदोवस्त असंखेज्जदिभागो ।। १३९ ॥ एगजीवेण अंतरानुगमे सासणसम्माइट्टीणमंतरं कुदो ? पढमसम्मत्तं घेतूण अंतोमुहुत्तमच्छिय सासणगुणं गंतूणादिं करिय मिच्छत्तं गंतूणंतरिय सव्वजहणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुव्वेलणकालेण सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं पढमसम्मत्तपाओग्गसागरोवमपुधत्तमेत्तट्ठिदिसंतक्रम्मं ठविय तिणविकरणाणि काऊण पुणो पढमसम्मत्तं घेत्तूण छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तए सासणं गदस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं तरुवलंभादो । उवसमसेडीदो ओयरिय सासणं गंतूण अंतोमुहुत्तेण पुणो वि उवसमसेडिं चडिय ओदरिदूण सासणं गदस्स अंतोमुहुत्तमेत्त मंतरं उबलब्भदे, एदमेत्थ किरण परूविदं ? ण च उवसमसेडीदो ओदिण्ण उवसमसम्माइट्टिणो सासणं (ण) गच्छंति त्ति नियमो अस्थि, 'आसाणं पि गच्छेज' इदि कसायपाहुडे चुण्णिसुत्तदंसणादो । एत्थ परिहारो उच्चदे - उत्रसमसेडीदो ओदिण्णउवसमसम्माइट्ठी दोवारमेक्को ण सासणगुणं पडिवज्जदि ति । तहि भवे सासणं [ २३३. यह सूत्र सुगम है । सासादन सम्यग्दृष्टियोंका अन्तर जघन्यसे पल्योपमक असंख्यातवें भागप्रमाण है ॥ १३९ ॥ क्योंकि, प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहणकर और अन्तर्मुहूर्त रहकर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो आदि करके, पुनः मिथ्यात्वमें जाकर अन्तरको प्राप्त हो सर्वजघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उद्वेलनकालसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके प्रथम सम्यक्त्वके योग्य सागरोपमपृथक्त्वमात्र स्थितिसत्वको स्थापित कर तीनों ही करणको करके पुनः प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहणकर उपशमसम्यक्त्वकालमें छह आवलियों के शेष रहनेपर सासादनको प्राप्त हुए जीवके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । शंका-उपशमश्रेणी से उतरकर सासादनको प्राप्त हो अन्तर्मुहूर्तसे फिर भी उपशमश्रेणीपर चढ़कर व उतरकर सासादनको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर प्राप्त होता है, उसका यहां निरूपण क्यों नहीं किया ? उपशमश्रेणीसे उतरे हुए उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनको नहीं प्राप्त होते ऐसा कोई नियम भी नहीं है, क्योंकि, 'सासादनको भी प्राप्त होता है' इस प्रकार कषायप्राभृतमें चूर्णिसूत्र देखा जाता है । Jain Education International समाधान—यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं - उपशमश्रेणीसे उतरा हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि एक ही जीव दो बार सासादनगुणस्थानको प्राप्त नहीं होता । उसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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