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छक्खंडागमे खुदाबंधी -- २, २, १६८. उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरिय, देसूणं ॥ १६८ ॥
कुदो ? अद्धपोग्गलपरियट्टस्स आदिसमए संजमं घेत्तूण उवसमसम्मत्तद्धाए छावलियावसेसाए असंजमं गंतूण उबड्डयोग्गल परियट्ट परियट्टिदूग पुगो तिण्णि करणाणि कादूण संजमं पडिवण्णस्स तदुवलंभादो ।
दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणी केवचिरं कालादो होति ? ॥१६९॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १७० ॥
कुदो ? अचक्खुदंसणेण द्विदस्स चक्खुदंसणं गंतूण जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो अचवखुदंसणं गदस्स तदुवलं भादो। चउरिदियअपज्जत्तएसु उप्पाइय खुद्दाभवग्गहणं जहण्णकालो त्ति किष्ण परूविदं ? ण, चक्खुदंसणीअपजत्तएसु खुद्दाभवग्गणमेतजहण्णकालाणुवलंभादो।
उक्कस्सेण बे सागरोवमसहस्साणि ॥ १७१ ॥
अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल तक जीव असंयत रहते हैं ॥ १६८॥
क्योंकि, अर्धपुद्गलपरिवर्तनके प्रथम समयमें संयमको ग्रहण कर उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां शेष रहनेपर असंयमको प्राप्त होकर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन भ्रमण कर पुनः तीन करणोंको करके संयमको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है।
दर्शनमार्गणानुसार जीव चक्षुदर्शनी कितने काल तक रहते हैं । १६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव चक्षुदर्शनी रहते हैं ॥ १७० ।।
क्योंकि, अचक्षुदर्शन सहित स्थित जीवके चक्षुदर्शनी होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः अचक्षुदर्शनी होनेपर अचक्षुदर्शनका अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त हो जाता है।
शंका-किसी जीवको चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अर्थात् लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराकर चक्षुदर्शनका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणमात्र क्यों नहीं प्ररूपण किया ?
समाधान- नहीं किया, क्योंकि, चक्षुदर्शनी अपर्याप्तकोंमें शुद्रभवग्रहणमात्र जधन्य काल नहीं पाया जाता । (देखो जीवट्ठाण, कालानुगम, सूत्र २७८ टीका)।
अधिकसे अधिक दो हजार सागरोपम काल तक जीव चक्षुदर्शनी रहता है ॥१७१॥
१ अनि ' पन्मत्तएसु' इति पाठः।
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