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२, २, १६७. ]
एगजीवेण कालाग असजद कालपरूवर्ण
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खविय जहाक्खादसंजदो होदूण देणपुच्त्रकोर्डि विहरिय अबंधगतं गदस्स तदुवलंभादो । असंजदा केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १६३ ॥
सुमं ।
अणादिओ अपज्जवसिदो ॥ १६४ ॥ अभवियं पच्च एसो णिदेसो । अणादिओ सपज्जवसिदो ॥ १६५ ॥ भवियं पडुच्च एसो णिद्देसो | सादिओ सपज्जवसिदो ॥ १६६ ॥ सादि-सांतमसंजमं पडुच्च एसो णिद्देसो ।
जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स इमो णिदेसो- जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १६७ ॥
कुदो ! संजदस्त परिणामपच्चएण असंजमं गंतूण तत्थ सव्वजहणमंतो मुहुत्तमच्छिय संजमं गदस्स जहण्णकालुवलंभादो |
मोहनीयका क्षय कर, यथाख्यातसंयत होकर और कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष तक विहार कर अबन्धक अवस्थाको प्राप्त हुए जीवके वह सूत्रोक्त काल पाया जाता है ।
जीव असंयत कितने काल तक रहते हैं ? ॥ १६३ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
असंयत जीवोंका काल अनादि-अनन्त है ॥ १६४ ॥
।
यह निर्देश अभव्य जीव की अपेक्षासे किया गया है। असंयतका काल अनादि- सान्त है ॥ १६५ ॥
यह निर्देश भव्य जीवकी अपेक्षासे किया गया है। असंयतका काल सादि- सान्त है ॥ १६६ ॥
यह निर्देश सादि- सान्त असंयमकी अपेक्षा किया गया है ।
जो वह सादि- सान्त असंयम है उसका इस द्दकार निर्देश है— कमसे कम अन्तमुहूर्त काल तक जीव असंयत रहते हैं ।। १६७ ।।
क्योंकि, संयत जीवके परिणामोंके निमित्तसे असंयमको प्राप्त होकर और वहां सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः संयमको प्राप्त करनेपर उक्त जघन्य काल पाया जाता है ।
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