SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 280
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २, ५, ८.] दव्यपमाणाणुगमे गेरइयाणं पमाणं [२४७ संघारस्स तस्स एदम्हादो पहाणत्ताभावादो । तम्हा एत्थतणविक्खंभसूची संपुण्णघणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता, मिच्छाइट्ठिविक्खंभसूची पुण किंचूणघणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता ति घेत्तव्यं । एत्थ विक्खंभसूची-अवहारकालदव्वाणं खंडिद-भाजिद-विरलिद-अवहिद-पमाणकारण-णिरुत्ति-वियप्पेहि परूवणा कायव्वा । एवं पढमाए पुढवीए णेरइया ॥ ७॥ सामण्णणेरइयाणं पमाणं कधं पढमाए पुढवीए णेरइयाणं होदि? ण, दोण्हमालावाणं भेदाभावादो । अत्थदो पुण अस्थि भेदो, अण्णहा छण्णं पुढवीणं णेरइयाणमभावप्पसंगादो । तम्हा पुव्विल्लविक्खंभसूची एगरूवस्स असंखेज्जदिभागेणूणा पढमपुढविणेरइयाणं विक्खंभसूची होदि । सेसं जाणिदूण वत्तव्यं । बिदियाए जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया दव्वपमाणेण केवडिया ? ॥ ८॥ एदमासंकासुत्तं संखेज्जासंखेज्जाणंतसंखाणमवेक्खदे । एत्थ तिसु वि संखासु क्योंकि, क्षुद्रबन्धके उपसंहारभूत उस सूत्रके इस सूत्रकी अपेक्षा प्रधानताका अभाव है। इसलिये यहांकी विष्कम्भसूची सम्पूर्ण घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र और मिथ्यादृष्टियोंकी विष्कम्भसूची कुछ कम घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहांपर विष्कम्भसूची व अवहारकाल द्रव्योंका खण्डित, भाजित, विरलित, अपहृत, प्रमाण, कारण, निरुक्ति और विकल्प, इनके द्वारा प्ररूपण करना चाहिये। (देखिये जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम, सूत्र १७ की टीका )। सामान्य नारकियोंके समान ही प्रथम पृथिवीके नारकियोंका द्रव्यप्रमाण है ॥७॥ शंका-सामान्य नारकियोंका प्रमाण प्रथम पृथिवीके नारकियोंका कैसे हो सकता? समाधान-नहीं, क्योंकि, दोनों आलापोंमें कोई भेद नहीं है । परन्तु परमार्थसे भेद है ही, अन्यथा छह पृथिवियोंके नारकियोंके अभावका प्रसंग होगा । इस • कारण पूर्व विष्कम्भसूची एक रूपके असंख्यातवें भागसे हीन होकर प्रथम पृथिवीके नारकियोंकी विष्कम्भसूची होती है । शेष जानकर कहना चाहिये। द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीके नारकी द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं १ ॥ ८॥ यह आशंकासूत्र संख्यात, असंख्यात और अनन्त संख्याकी अपेक्षा रखता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy