SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 370
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २, ६, ४५.] खेत्ताणुगमे पुढविकाइयादिखेत्तपरूवणं [ ३३७ लोगस्स संखेज्जदिभागे ॥ ४४ ॥ एदस्स अत्थो बुच्चदे- सत्थाण-वेयण-कसायपदेहि तिण्हं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहितो असंखेज्जगुणे अच्छंति । कुदो ? एदेसिं पंचरज्जुआयद-एगरज्जुसमंतदोवाहल्लसमचउरसलोगणालीए अबढाणादो। वेउबियपदेण चउण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे। माणुसखेत्तादो ण णव्वदे। मारणंतिय-उववादेहि तिण्डं लोगाणं संखेज्जदिभागे, णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेज्जगुणे । सबलोगो किण्ण लब्भदे ? ण, अण्णेहिंतो आगंतूण एत्थुप्पज्जमाणजीवाणं एदेहितो अण्णत्थुप्पज्जणटुं मारणंतियं करेमाणजीवाणं च बहुत्ताभावादो, बादरखाउक्काइयपज्जत्ताणं पाएण पंचरज्जुखेत्तभंतरे चेव मारणंतिय-उववादाणमुवलंभादो । वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा सुहुमवणप्फदिकाइय-सुहमणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्त-अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥४५॥ बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात व उपपादसे लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ४४ ॥ ___ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घात पदोंसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव तीन लोकोंके संख्यातवें भागमे तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, इनका पांच राजु आयत और चारों ओरसे एक राजु मोटी समचतुष्कोण लोकनाली में अवस्थान है। वैक्रियिक पदसे चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं, नहीं है। मारणान्तिकसमुद्घात और उपपादकी अपेक्षा तीन लोकोंके संख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। शंका--मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक क्यों नहीं प्राप्त होता? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्य जीवोंमेंसे आकर इनमें उत्पन्न होनेवाले या इनमेंसे अन्यत्र उत्पन्न होनेके लिये मारणान्तिकसमुदघातको करनेवाले जीव बहुत नहीं हैं, तथा वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके प्रायः करके पांच राजुप्रमाण क्षेत्रके भीतर ही मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद पद पाये जाते हैं। वनस्पतिकायिक, वनस्पस्पतिकायिक पर्याप्त, वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोदजीव, निगोदजीव पर्याप्त, निगोदजीव अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, १ प्रतिषु ' -भागो' इति पाठ : । २ प्रतिषु ' -गुणो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy