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________________ ३३८ ] छक्खंडागमे खुद्दा बंधो सुगममेदं । सव्वलोए ॥ ४६ ॥ कुदो ? सव्वलोगं निरंतरेण वाविय अवड्डाणादो । बादराणं व सुहुमाणं लोगस्सेगदेसे अवद्वाणं किण्ण होज्ज १ ण, 'सुहुमा सव्वत्थ जल-थलागासेसु होंति' त्ति वयणेण सह विरोहादो । बादरवणफदिकाइया बादरणिगोदजीवा तस्सेव पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण केवडिखेते ? ॥ ४७ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ४८ ॥ देसामा सिस्सेदस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा - [ २, ६, ४६. सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोदजीव, सूक्ष्म निगोदजीव पर्याप्त और सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्त, ये स्वस्थान, समुद्घात व उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४५ ॥ तिन्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, यह सूत्र सुगम है। उपर्युक्त जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ॥ ४६ ॥ क्योंकि, निरन्तररूपसे सर्व लोकको व्याप्त कर इनका अवस्थान है । शंका-बादर जीवोंके समान सूक्ष्म जीवोंका लोकके एक देशमें अवस्थान क्यों नहीं होता ? Jain Education International समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर 'सूक्ष्म जीव जल, थल व आकाशमें सर्वत्र होते हैं ' इस वचनसे विरोध होगा । बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोदजीव, बादर निगोदजीव पर्याप्त और बादर निगोदजीव अपर्याप्त स्वस्थानसे कितने क्षेत्र में रहते हैं ? ॥ ४७ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीव स्वस्थानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भाग में रहते हैं ॥ ४८ ॥ इस देशामर्शक सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है :- उक्त जीव २ प्रतिषु च इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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