SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८६ ] डागमे खुदाबंध [ २, २, २१६. अजोगी भयवतो बंधओ, तत्थ आसवाभावादो | ण च अण्णत्थ अनाहारिस्स अंतोमुहुत्तमेतो कालो लब्भदि । तदो णेदं घडदि त्ति ? ण एस दोसो, अघाइचउक्ककम्मपोग्गलक्खधाणं लोग तजीव पदे साणं च अण्णोष्णवधमवेक्खिय अजोगीणं पि बंधगतन्भुवगमादो | ण च ' मणुस्सा अबंधा वि अस्थि' त्ति एदेण सुत्तेण सह विरोहो, जोग - कसायादीहिंतो जायमाणपञ्चग्गबंधाभावं पडुच्च तत्थ तधोवदेसादो । एगजीवेण कालो त्ति समत्तमणिओगद्दारं । भगवान् तो बन्धक नहीं होते, क्योंकि उनके कर्मोंके आस्रवका अभाव है । अन्यत्र कहीं अनाहारी जीवका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल पाया नहीं जाता। अतएव यह अनाहारीका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण काल घटित नहीं होता ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि चार अघातिक कर्मोंके पुलस्कंधोंका और लोकप्रमाण जीवप्रदेशोंका परस्पर बन्धन देखते हुए अयोगी जिनोंके भी बन्धकभाव स्वीकार किया गया है। ऐसा माननेपर ' मनुष्य अबन्धक भी होते हैं ' इस सूत्र से विरोध भी नहीं आता, क्योंकि उक्त सूत्रमें योग और कषाय आदिसे उत्पन्न होनेवाले नवीन वन्धके अभावकी अपेक्षासे अयोगियोंके अबन्धक होनेका उपदेश किया गया है। एक जीवकी अपेक्षा काल नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy