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३३४ ) छक्खंडागमै खुदाबंधों
[२, ६, ३८. बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरतेउकाइया बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेते ? ॥ ३८॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ ३९ ॥
एदस्स अत्थो वुच्चदे- बादरपुढविपज्जत्ता सत्थाण-वेयण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिमागे, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगणे । कुदो? एदेसि अवहारकालटुं पदरंगुलस्स द्वविदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागादो एदेसिमोगाहणटुं घणंगुलस्स दुविदपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागस्स असंखेज्जगुणत्तादो । मारणंतिय-उववादगदा तिण्डं लोगाणमसंखेज्जदिभागे णर-तिरियलोगेहिंतो असंखेजगुणे । एत्थ ओवट्टणा जाणिय ओवट्टेदव्वा । एवं बादरआउकाइय-वादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-बादरणिगोदपदिद्विदपजत्ताणं ।
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त व बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ ३८॥
यह सूत्र सुगम है।
उपर्युक्त बादर पृथिवीकायिकादि पर्याप्त जीव उक्त पदोंसे लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ ३९ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-- बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त होकर चार लोकोके असंख्यातवें
और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं, क्योंकि, इन जीवोंके अवहारकालके लिये प्रतरांगुलके स्थापित पल्योपमके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा इनकी अवगाहनाके लिये धनांगुलका स्थापित पल्योपमका असंख्यातवां भाग असंख्यातगुणा है, अर्थात् इनके अवहारकालका निमित्तभूत जो प्रतरांगुलका भागहार पल्योपमके असंख्यातवे भागप्रमाण बतलाया गया है उसकी अपेक्षा अवगाहनाका निमित्तभूत पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण घनांगुलका भागहार असंख्यातगुणा है। मारणान्तिकसमुद्घात व उपपादको प्राप्त बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीव तीन लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मनुष्यलोक व तिर्यग्लोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। यहां अपवर्तना जानकर करना चाहिये । इसी प्रकार बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त
१ अ-काप्रलोः 'पत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता', आप्रतौ 'पत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जतापन्जत्ता' इति पाठः। २ प्रतिषु 'रासिं ' इति पाठः ।
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