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________________ ८८] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, १, ४६. विरोहो किण्ण जायदे? ण, जदि सव्वघादिफद्दयाणमुदयक्खएण संजुत्तदेसघादिफयाणमुदएणेव खओवसमियो भावो इच्छिज्जदि तो फासिदिय-कायजोगो-मदि-सुदणाणाणं खओवसमिओ भावो ण पावदे, पासिंदियावरण-वीरियंतराइय-मदि-सुदणाणावरणाणं सम्वघादिफद्दयाणं सव्यकालमुदयाभावा । ण च सुववयणविरोहो वि, इंदिय-जोगमग्गणासु अण्णेसिमाइरियाणं वक्खाणक्कमजाणावणटुं तत्थ तधापरूवणादो । जं जदो णियमेण उप्पज्जदि तं तस्स कज्जमियरं च कारणं । ण च देसघादिफद्दयाणमुदओ व्ध सव्वधादिफद्दयाणमुदयक्खओ णियमेण अप्पप्पणो णाणजणओ, खीणकसायचरिमसमए ओहिमणपज्जवणाणावरणसव्वधादिफहयाणं खएण समुप्पज्जमाणओहि-मणपज्जवणाणाणमणुवलंभादो। केवलणाणी णाम कधं भवदि ? ॥ ४६॥ किमोदइएणोवसमिएण खओवसमिएण पारिणामिएणेत्ति' ? ण पारिणामिएण है ऐसा प्ररूपण करनेवालेके स्ववचनविरोध दोष क्यों नहीं होता? समाधान नहीं होता, क्योंकि यदि सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयक्षयसे संयुक्त देशघाती स्पर्धकोंके उदयसे ही क्षायोपशमिक भाव मानना इष्ट हो तो स्पर्शेन्द्रिय, काययोग और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान, इनके क्षायोपशमिक भाव प्राप्त नहीं होगा, चूंकि, स्पर्शेन्द्रियावरण, वीर्यान्तराय और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान इनके आवरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका सब कालमें अभाव है। अर्थात् उक्त आवरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंका उदय कभी होता ही नहीं है । इसमें कोई स्ववचन विरोध भी नहीं है क्योंकि इन्द्रियमार्गणा और योगमार्गणामें अन्य आचार्योंके व्याख्यानक्रमका ज्ञान लिये वहां वैसा प्ररूपण किया गया है । जो जिससे नियमतः उत्पन्न होता है वह उसका कार्य होता है और वह दूसरा उसको उत्पन्न करने वाला कारण होता है। किन्तु देशघाती स्पर्धकोंके उदयके समान सर्वघाती स्पर्धकों के उदयक्षय नियमसे अपने अपने ज्ञानके उत्पादक नहीं होते, क्योंकि, क्षीणकषायके अन्तिम समयमें अवधि और मनःपर्यय शानावरणोंके सर्वघाती स्पर्धकोंके क्षयसे अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होते हुए नहीं पाये जाते। जीव केवलज्ञानी कैसे होता है ? ॥ ४६॥ क्या औदयिक भावसे, कि औपशमिक भावसे, कि क्षायोपशमिक भावसे, कि पारिणामिक भावसे जीव केवलज्ञानी होता है ? पारिणामिक भावसे तो होता नहीं, . १ प्रतिषु ' पारिणामिणो त्ति ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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