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________________ २, ८, ९.] णाणाजीवेण कालाणुगमे गदिमागणा [ ४६५ तं जहा---- मणुसअपज्जत्तए सु अंतरिय द्विदेसु अणप्पिदगदीदो थोवा जीवा मणुसअपज्जत्तएसु आगंतूण उप्पण्णा । णमंतरं । तेसिं जीवाणं जीविददुचरिमसमओ त्ति पुणो वि उप्पत्तिं पडुच्च अंतरं कश्यि पुणो अपणे उप्पाएयया । तत्थ वि उप्पत्तिं पडुच्च अप्पिदजीवाणं जीविददुचरिमसमयो त्ति अंतरं करिय पुणो अण्णे उप्पाएयव्वा । तत्थ वि उप्पत्तिं पडुच्च अप्पिदजीवाणं जीविददुचरिमसमओ त्ति अंतरं करिय अण्णे उपाएयव्या । अणेण पयारेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तवारेसु गदेसु तदा णियमा अंतरं होदि । एदम्हि काले आणिजमाणे एक्किस्से वारसलागाए जदि संखेज्जावलियमेत्तो कालो लब्भदि, तो पलिदोवमस्स असंखजीदभागमे तसलागासु किं लभामो ति फलेण इच्छं गुणिय पमाणेणोवट्टिदे मणुसअपञ्जत्ताणं संताणस्स कालो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तो जादो । केइमेगमाउछिदि ठविय आवलियाए असंखेञ्जदिभागमेतणिरंतरुवक्कमणकालेण गुणिय पमाणेणोवट्ठति । तसिमसो कालो णागच्छदि । देवगदीए देवा केवचिरं कालादो होति ? ॥ ९॥ सुगमं । इसीको स्पष्ट करते हैं.- मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके अन्तरित होकर स्थित होने पर अविवक्षित गतियोंसे स्तोक जीव मनुष्य अपर्याप्तोंमें आकर उत्पन्न हुए । इस प्रकार अन्तर नष्ट हुआ। उन जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक फिर भी उत्पत्तिकी अपेक्षा अन्तर करके पुनः अन्य जीवोंको मनुष्य अपर्याप्तोंमें उत्पन्न कराना चाहिये। उनमें भी उत्पत्तिकी अपेक्षा विवक्षित जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक अन्तर करके पुनः अन्य जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये। उनमें भी उत्पत्तिकी अपेक्षा विवक्षित जीवोंके जीवितके द्विचरम समय तक अन्तर करके अन्य जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये। इस प्रकारसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र चारोंके वीत जानेपर तत्पश्चात नियमसे अन्तर होता है । इस कालके निकालते समय ' यदि एक वार-शलाकामें संख्यात आवलीमात्र काल लब्ध होता है, तो पल्यापमके असंख्यातवें भागमात्र वार-शलाकाओंमें कितना काल लब्ध होगा? ' इस प्रकार फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित कर प्रमाणराशिसे अपवर्तित करनेपर मनुष्य अपर्याप्तोंकी सन्तानका काल पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र होता है। कितने ही आचार्य एक आयुस्थितिको स्थापित कर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र निरंतर उपक्रमणकालसे गुणित करके प्रमाणसे अपवर्तित करते हैं। उनके उपर्युक्त विधानस यह काल नहीं आता। देवगतिमें देव कितने काल तक रहते हैं ? ॥९॥ यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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