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________________ ४६४] छक्खंडागमे खुदाबंधो [ २, ८, ५. दिवस-पक्ख-मास-उदु-अयण-संवच्छर-पुव्व-पव-पल्ल-सागरुस्सप्पिणि-कप्पादिकालावट्ठाइणो त्ति आसंकिय तस्स उत्तरसुत्तं भणदि सव्वद्धा ॥५॥ सव्वा अद्धा कालो जेसिं ते सव्वद्धा, संताणं पडि तत्थ सव्वकालावट्ठाइणो त्ति वुत्तं होदि । मणुसअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? ॥ ६॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७॥ कुदो ? अणप्पिदगदीदो आगंतूण मणुसअपज्जत्तेसुप्पज्जिय अंतरं विणासिय खुद्दाभवग्गहणमच्छिय णिस्सेसमणप्पिदगदिं गदाणं खुद्दाभवग्गहणमेत्तजहण्णकालुवलंभादो । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ८ ॥ दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, संवत्सर, पूर्व, पर्व, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी एवं कल्पादि काल तक अवस्थायी हैं' इस प्रकार आशंका करके उसका उत्तरसूत्र कहते हैं उपर्युक्त जीव सन्तानकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं ॥ ५ ॥ 'सर्व है अद्धा अर्थात् काल जिनका' इस बहुव्रीहि समासके अनुसार 'सर्वाद्धा' पदका अर्थ 'सर्व काल रहनेवाले' होता है, अर्थात् संतानकी अपेक्षा वहां उपर्युक्त जीव सर्व काल स्थित रहनेवाले हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है। मनुष्य अपर्याप्त जीव कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६ ॥ यह सूत्र सुगम है। मनुष्य अपर्याप्त जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण काल तक रहते हैं ॥ ७ ॥ क्योंकि, अविवक्षित गतिसे आकर मनुष्य अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होकर व अन्तरको नष्ट कर शुद्रभवग्रहणकाल तक रहकर निःशेष रूपसे अविवक्षित गतिमें गये हुए उक्त जीवोंका क्षुद्रभवग्रहणमात्र जघन्य काल पाया जाता है। वे ही मनुष्य अपर्याप्त जीव उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालतक रहते हैं ॥ ८॥ १ प्रतिषु ' -मस्सिय ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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