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________________ २, ८, ४.] णाणाजीवेण कालाणुगमे गदिमग्गणा [ १६३ चेव । ण च सव्वं सहेउअं चेवेत्ति णियमो अस्थि, एयंतवादप्पसंगादो । तम्हा ‘ण अण्णहावाइणो जिणा' इदि एदं सद्दहेयव्यं । एवं सत्तसु पुढवीसु णेरइया ॥३॥ जहा णेरइयाणं सामण्णेण अणादिओ अपज्जवसिदो संताणकालो वुत्तो तधा सत्तसु पुढवीतु णेरइयाणं पि । पादेक्कं संताणस्स वोच्छेदो ण होदि त्ति वुत्तं होदि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता मणुसगदीए मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी केवचिरं कालादो होति ? ॥४॥ एदे सुत्तम्मि वुत्तजीवा संताणं पडुच्च किमणादि-अपज्जवसिदा, किमणादिसपज्जवसिदा, किं सादि-अपज्जवसिदा, कि सादि-सपज्जवसिदा; सादि-सपज्जवसिदा वि संता तत्थ किमेगसमयावट्ठाइणो किं दुसमया किं तिसमया, एवमावलिय-खण-लव-मुहुत्त ........ ऐसा स्वभावसे ही है। और सब सहेतुक ही हो ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि, ऐसा मानने में एकान्तवादका प्रसंग आता है। इस कारण 'जिनदेव अन्यथावादी नहीं है' इस प्रकार इसका श्रद्धान करना चाहिये। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में नारकी जीव नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं ॥ ३ ॥ जिस प्रकार नारकियोंका सामान्यसे अनादि-अपर्यवसित सन्तानकाल कहा है, उसी प्रकार सातों पृथिवियों में ही नारकियोंका सन्तानकाल अनादि-अपर्यवसित है। प्रत्येक सन्तानका व्युच्छेद नहीं होता, ऐसा इस सूत्रका अभिप्राय है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती व पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त; तथा मनुष्यगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ४ ॥ ये सूत्र में कहे हुए जीव सन्तानकी अपेक्षा 'क्या अनादि अपर्यवसित हैं, क्या अनादि-सपर्यवसित हैं, क्या सादि-अपर्यवसित हैं, क्या सादि-सपर्यवसित हैं, और क्या सादि-सपर्यवसित भी होकर उसमें क्या एक समय अवस्थायी हैं, क्या दो समय भवस्थायी हैं, क्या तीन समय अवस्थायी हैं- इस प्रकार आवली, क्षण, लव, मुहूर्त, १ प्रतिषु । अपज्जत्ताण' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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