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________________ २, ७, १७६.] फोसणाणुगमे संजममग्गणा [१३३ समुग्धादेहि केवडियं खेतं फोसिदं ? ॥ १७३ ॥ सुगमं । लोगस्स असंखेज्जदिभागो ॥ १७४ ॥ एत्थ खेत्तवण्णणा कायव्या, वट्टमाणप्पणादो । छचोदसभागा वा देसूणा ॥ १७५ ॥ एत्थ ताव वासदत्थो वुच्चदे । तं जहा- वेयण-कसाय-वे उब्धियपदेहि तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागो, तिरियलोगस्स संखेजदिभागो, अड्डाइज्जादो असंखेज्जगुणो फोसिदो। एसो वासदत्थो । मारणंतियेण पुण छचोदसभागा फोसिदा, तिरिक्खेहितो जाव अच्चुदकप्पो त्ति मारणंतियं मेल्लमाणसंजदासंजदाणं तदुवलंभादो। उववादं णत्थि ॥ १७६ ॥ संजदासंजदगुणेण उववादस्स विरोहादो । समुद्घातोंकी अपेक्षा संयतासंयत जीवोंने कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? ॥ १७३ ॥ यह सूत्र सुगम है। संयतासंयत जीवोंने समुद्घातोंकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है ॥ १७४ ॥ यहां क्षेत्रप्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, वर्तमान कालकी विवक्षा है। अतीत कालकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है ॥ १७५ ॥ यहां पहिले वा शब्दसे सूचित अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियिकसमुद्घात पदोंसे तीन लोकोंके असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोकके संख्यातवें भाग, और अढ़ाईद्वीपसे असंख्यातगुणे क्षेत्रका स्पर्श किया है। यह वा शब्दसे सूचित अर्थ है । मारणान्तिकसमुद्घातसे (कुछ कम) छह बटे चौदह भागोंका स्पर्श किया है, क्योंकि, तिर्यचोंमेंसे अच्युत कल्प तक मारणान्तिकसमुद्घातको करनेवाले संयतासंयत जीवोंके उपर्युक्त स्पर्शन पाया जाता है। संयतासंयत जीवोंके उपपाद पद नहीं होता ॥ १७६ ॥ क्योंकि, संयतासंयतगुणस्थानके साथ उपपादका विरोध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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