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________________ धाक कथन इससे पूर्व प्रकाशित पुस्तकमें षट्खंडागमका प्रथम खण्ड जीवस्थान ( जीवट्ठाण ) समाप्त हो चुका है | उसे प्रकाशित हुए लगभग डेढ़ वर्ष हुआ है। अब प्रस्तुत पुस्तकमें षट्खंडागमका दूसरा खण्ड क्षुदकबन्ध ( खुद्दाबंध ) पूर्व पद्धति अनुसार अनुवादादि सहित प्रकाशित किया जाता है । इस खण्डके ग्यारह मुख्य तथा प्रास्ताविक व चूलिका इस प्रकार कुल तेरह अधिकारें। क्रमशः ४३, ९१, २१६, १५१, २३, १७१, १२४, २७४, ५५, ६८, ८८, २०६ और ७९ योग १५८९ सूत्र पाये जाते हैं। इन अनुयोगोंका विषय प्रायः वही है जो जीवस्थान खण्डमें भी आ चुका है। विशेषता यह है कि यहां मार्गणास्थानोंके भीतर गुणस्थानोंकी अपेक्षा रखकर प्ररूपण किया गया है जैसा कि विषय परिचयसे प्रकट होगा । यही कारण है कि इस खण्डमें उतने तुलनात्मक टिप्पण देने व विशेषार्थ लिखनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई। इसी समयमें हमारी स्वीकृत संशोधन प्रणालीकी कठोर परीक्षाका अवसर आ उपस्थित हुआ । पाठकोंको ज्ञात है कि हमने अत्यन्त सावधानीसे उपलब्ध प्रतियोंके पाठकी रक्षा की है । उपलभ्य पाठमें या तो भाषाकी दृष्टिसे केवल वे ही संशोधन किये गये हैं जिनके नियम हम प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनामें प्रकट कर चुके हैं । या यदि कहीं कुछ पाठ जोड़ना आवश्यक प्रतीत हुआ तो वह पाठ कोष्ट कमें रखा गया है या उसकी संभावना पाद टिप्पणमें बतलाई गई है । जीवस्थानकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में इसी प्रकारका एक प्रसंग उपस्थित हुआ था जहां अर्थ, शैली, टीका, सिद्धान्तपरम्परा आदि समस्त उपलब्ध प्रमाणोंपर विचार कर फुटनोटमें ' संजद ' पद छूट जानेकी सभावना प्रकट की गई थी और अनुवाद उस पदको ग्रहण करके ही बैठाया गया था। इस पर पाठकोंको जो शंका उत्पन्न हुई उसका समाधान भी पुस्तक ३ की प्रस्तावनामें कर दिया गया था । किन्तु अभी अभी उस प्रश्नपर फिर बड़ा विवाद उपस्थित हो उठा । बहुतसे पंडितोंने यह आक्षेप किया कि उक्त सूत्रमें 'संयत' पद ग्रहण करनेसे दिगम्बर मान्यताको आघात पहुंचता है और उसकी संभावना सम्प्रदायको क्षति पहुंचने की दृष्टिसे ही सम्पादकने प्रकट की है । इन आक्षेपोंसे बचने के लिये उस समयके मेरे एक सहकारी सम्पादक पं. हीरालालजीने तो प्रकट ही कर दिया कि वह पाठ-संशोधन उनकी सम्मतिसे नहीं हुआ । दूसरे सहयोगी पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री उस सम्बन्धमें अभी तक मौन ही रहे । इस परिस्थतिमें मैंने पं. लोकनाथजी शास्त्रीसे पुनः प्रेरणा की कि वे मूडविद्रीकी तीनों ताड़पत्र प्रतियोंमें उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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