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________________ प्राक् कथन सूत्रका पाठ देखने की कृपा करें । इसके फलस्वरूप दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें सूत्र पाठ · संयत' पदसे युक्त पाया गया और तीसरी प्रतिमें वह ताड़पत्र ही उपलभ्य नहीं है। इस स्पष्टीकरणके लिये हम पं. लोकनाथजी शास्त्रीके बहुत उपकृत हैं । इस तुलनात्मक अन्वेषणसे हमारी पाठ संशोधन प्रणालीकी प्रामाणिकता सिद्ध हो गई ।। हमें यह प्रकट करते हुए अत्यन्त दुःख होता है कि इस खंडके प्रकाशित होनेसे कुछ ही मास पूर्व इस फंडके ट्रस्टी तथा इस प्रकाशन योजनामें बड़े भारी सहायक अमरावती निवासी श्रीमान् सिंघई पन्नालाल जी का स्वर्गवास हो गया। उन्होंने इस संस्थाका जो उपकार किया है उसका उल्ले व उनके चित्र सहित प्रथम पुस्तकमें ही किया जा चुका है । सिंघईजीको इस प्रकाशनका बड़ा उत्साह था और इस सिद्धान्तको पूर्णतः प्रकाशित देखने की उन्हें प्रबल अभिलाषा थी । विधिके विधानसे वह सफल नहीं हो सकी । हम उनकी विधवा पत्नी तथा सुपुत्र व अन्य कुटुम्बियोंसे समवेदना प्रकट करते हुए उनकी आत्माको स्वर्ग में शान्ति मिलने के प्रार्थी हैं। ___ गत जुलाई १९४४ में मेरा तबादला अमरावतीसे नागपुरका हो गया । तथापि प्रकाशन ऑफिस व मुद्रणकी व्यवस्था अमरावतीमें ही रखना उचित प्रतीत हुआ । इस स्थान विच्छेदकी कठिनाई तथा अनेक आपत्तियां उपस्थित होनेपर भी जो यह कार्य प्रगतिशील बना हुआ है इसमें हमारे पाठकोंकी सद्भावना, श्रीमन्त सेठजी व अन्य अधिकारियों की सुदृष्टि व पूर्व समस्त सहायकोंके उपकारके अतिरिक्त पं. बालचन्द्रजी शास्त्रीका समुचित सहयोग व सरस्वती प्रेसके मैनेजर श्रीयुत टी. एम. पाटिलका उत्साह सराहनीय है । मैं सबका विशेष आभारी हूं। इसी सहयोगके बलपर आगे भी संशोधन प्रकाशन कार्य विधिवत् चलते रहने की आशा की जा सकती है । मारिस कॉलेज नागपुर २-७-४५ हीरालाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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