SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 365
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ ] छक्खंडागमे खुदाबंधो [ २, ६, ३५. भागाबाहल्लं जगपदरं होदि । सत्तमपुढवी छसत्तभागूणसत्तरज्जुविक्खंभा सत्तरज्जुआयदा अजोयणसहस्सबाहल्ला चउदालसहस्सा हियतिष्णं लक्खाणमेगुणवचास भागबाहल्लं जगपदरं होदि । (अट्ठमपुढवी सत्तरज्जुआयदा एगरज्जुरुंदा अट्ठजोयणबाहल्ला सत्तमभागाहियएगजोयणबाहल्लं जगपदरं होदि । एदाणि सव्वखेत्ताणि एगडे कदे तिरियलोगबाहल्लादो संखेज्जगुणबाहल्लं जग्रपदर होदि । मेरु-कुलसेल-देविंदय- सेडीबद्ध-पइण्णयविमाणखेत्तं च एत्थेव दट्ठव्वं सव्वत्थ तत्थ पुढविकाइयाणं संभवादो । बादरपुढविकाइया बादरआउकाइया बादरते उकाइया बादरवणफदिकाइया पत्तेयसरीरा एदेसिं चेत्र अपज्जत्ता य भवणविमाणट्टपुढवीसु णिचियक्कमेण णिवसंति । तेउ आउ रुक्खाणं कथं तत्थ संभवो ? ण, इंदिएहि ' अगेज्झाणं सुडुसण्हाणं पुढविजोगियाणमत्थित्तस्स बिरोहाभावादो । बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । सप्तम पृथिवी छह घंटे सात भाग कम सात राजु विस्तृत, सात राजु आयत और आठ सहस्र योजनप्रमाण बाहल्यसे संयुक्त है । यह घनफलकी अपेक्षा तीन लाख चवालीस सहस्र योजनोंके उनंचासवें भाग बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । अष्टम पृथिवी सात राजु आयत, एक राजु विस्तृत और आठ योजनप्रमाण वाल्यसे संयुक्त है । यह घनफलकी अपेक्षा एक बटे सात भाग अधिक एक योजन बाहल्यरूप जगप्रतरप्रमाण है । इन सब क्षेत्रोंको एकत्रित करनेपर तिर्यग्लोकके बाहल्यसे संख्यातगुणे बाहल्यरूप जगप्रतर होता है । ( देखो पुस्तक ४, पृ. ८८ आदि ) । मेरु, कुलपर्वत तथा देवोंके इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक विमानोंका क्षेत्र भी यह पर देखना चाहिये, क्योंकि, वहां सब जगह पृथिवीकायिक जीवोंकी सम्भावना है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके ही अपर्याप्त जीव भी भवनवासियोंके विमानों में व आठ पृथिवियों में निचितक्रम से निवास करते हैं । शंका - तेजस्कायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोंकी वहां कैसे सम्भावना है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, इन्द्रियोंसे अग्राह्य व अतिशय सूक्ष्म पृथिवीसम्बद्ध उन जीवोंके अस्तित्वका कोई विरोध नहीं है । १ प्रतिषु ' इत्थएहि', मप्रतौ ' ए इदि एहि ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy