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________________ १६४] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, २, १४१. तिरिक्खस्स मणुसस्स वा तेत्तीसाउट्ठिदिएसु सत्तमपुढविणेरईएसु उप्पज्जिय छपज्जत्तीओ समाणिय विभंगणाणी होदूण अंतोमुहुत्तेणूगतेत्तीसाउद्विदिमच्छिय णिग्गदस्स तदुवलंभादो। ___ आभिणियोहिय-सुद-ओहिणाणी केवचिरौं कालादो होदि ? ॥ १४१॥ सुगमं । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १४२ ।। देवस्स गेरईयरस वा मदि-सुदविभंगअण्णाणेहि अच्छिदस्स सम्मतं घेत्तणुप्पाइदमदिसुदोहिणाणस्स जहण्णमंनोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गयस्स तदंसणादो । उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ १४३ ॥ देवस्स णेरइयस्स वा पडिवण्णउवसमसम्मत्तेण सह समुप्पण्णमदि सुद-ओहिणाणस्स वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय अविणट्ठतिणाणेहि अंतोमुहुत्तमच्छिय एदेणंतोमुहुत्तेणूणपुव्यकोडाउअमणुस्सेसुववज्जिय पुणो वीसंसागरोवमिएसु देवेसुवधजिजय पुणो पुव्य क्योंकि, तिथंच अथवा मनुष्यके तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुवाले सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न होकर, छह पर्याप्तियोंको पूर्ण कर विभंगज्ञानी होकर अन्त. मुहूर्त कम तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थिति तक रहकर वहां से निकलनेपर वह ' सूत्रोक्त काल पाया जाता है। जीव आभिनियोधिक, श्रुत और अवधि ज्ञानी कितने काल तक रहता है ? ॥१४१। यह सूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी एवं अवधिज्ञानी रहता है ।। १४२ ॥ क्योंकि मति, श्रुत और विभंग अज्ञानके साथ स्थित देव अथवा नारकीके सम्यक्त्वको ग्रहणकर और मति, श्रुत एवं अवधि ज्ञानको उत्पन्न करके उनमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर उक्त काल देखा जाता है। अधिकसे अधिक साधिक छयासठ सागरोपम काल तक जीव आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी एवं अवधिज्ञानी रहता है ॥ १४३ ॥ देव अथवा नारकीके प्राप्त हुए उपशमसम्यक्त्वके साथ मति, श्रुत और अवधि बानको उत्पन्न करके, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर अविनष्ट तीनों शानोंके साथ अन्तर्मुहर्त काल तक रहकर, इस अन्तर्मुहूर्तसे हीन पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, पुनः बीस सागरोपमप्रमाण आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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