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________________ २, २, १४४. एगजीवेण कालानुगमे सम्मणाणिकालपरूवणं [ १६५ कोडा मणुस्से सुववज्जिय बावीसं सागरोवमट्ठिदीएस देवेसुववज्जिदूण पुणो पुव्त्रकोडाउस मणुस्सेसुववज्जिय खड्यं पट्टत्रिय चउवीसंसागरोवमाउडिदिएसु देवे सुववज्जिदूण पुणो पुव्वकोडाउस मणुस्सेसुववजिय थोवावसेसे जीविए केवलणाणी होतॄण अबंधगतं गदस्स चदुहि पुव्यकोडीहि सादिरेयछावट्टिसागरोवमाणमुवलंभादो । वेदगसम्मत्तेण छावट्टिसागरोमाणि भमाविय खइयं पट्ठविय तेतीससागरोव माउडिदिएस देवेसुप्पाइय अबंधओ किष्ण कओ ? ण, सम्मत्तेण सह जदि संसारे सुड्डु बहुअं कालं परिभवइ तो चदुहि पुचकोडीहि सादिरेयछावट्टिसागरोवमाणि चैव परिभमदित्ति वक्खाणंतर दंसणट्टमुवदेसणादो। तो मुहुत्ताहियछावट्टिसागरोवमाणि किष्ण वृत्ताणि ? ण, केवलवेदगसम्म तेण छावसिागरोमाणि संपुष्णाणि परिभमिय खइयभावं गदस्स तदुवलंभादो । मणपज्जवणाणी केवलणाणी केवचिरं कालादो होंति ? ॥ १४४ ॥ सुमं । उत्पन्न होकर, पुनः बाईस सागरोपम आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर, क्षायिकसम्यक्त्वका प्रारंभ करके, चौवीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर, जीवितके थोड़ा शेष रहनेपर केवलज्ञानी होकर अबन्धक अवस्थाको प्राप्त होनेपर चार पूर्वकोटियों से अधिक छयासठ सागरोपम पाये जाते हैं । शंका - वेदकसम्यक्त्वके साथ छयासठ सागरोपमप्रमाण घुमाकर और फिर क्षायिकसम्यक्त्वको प्रारंभ कर तेतीस सागरोपमप्रमाण आयुस्थितिवाले देवों में उत्पन्न कराकर अबन्धक क्यों नहीं किया ? समाधान - नहीं, क्योंकि 'सम्यक्त्वके साथ यदि जीव संसार में खूब बहुत काल तक भ्रमण करे तो चार पूर्वकोटियों से साधिक छयासठ सागरोपमप्रमाण ही भ्रमण करता है' ऐसा अन्य व्याख्यान दिखलानेके लिये वैसा उपदेश दिया है। शंका-अन्र्तमुर्हत से अधिक छ्यासठ सागरोपम क्यों नहीं कहे ? समाधान- नहीं कहे, क्योंकि, केवल वेदकसम्यक्त्वके साथ सम्पूर्ण छयासठ सागरोपम भ्रमणकर क्षायिकभावको प्राप्त हुए जीवके अन्तर्मुहूर्तसे अधिक छ्यासठ सागरोपम पाये जाते हैं । जीव मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी कितने काल तक रहते हैं ? ।। १४४ ॥ यह सूत्र सुगम है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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