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२, २, ७२.] एगजीवेण कालाणुगमे पुढविकायादिकालपरूवणं [१४३ दंसणादो । ण सहस्ससदस्स पुव्वणिवादो' होदि ति आसंकणिज्ज, लक्खाणुसारेण लक्खणस्स पुवुत्तिदंसणादो। पज्जत्ताण पुण सागरोवमसदपुधत्तं । कधमेदं णव्वदे ? जहासंखणायादो ।
पंचिंदियअपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ६९ ॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ७० ॥ उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥ ७१ ॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
कायाणुवादेण पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया केवचिरं कालादो होति ? ॥ ७२ ॥
एदं पि सुगमं ।
तो बहुत्त्व पाया जाता है । ऐसी भी आशंका नहीं करना चाहिये कि यदि बहुवचनका संबंध सहस्रसे न होकर सागरोपमोसे था तो सहस्त्र शब्दको सागरोपमके पश्चात् न रखकर उससे पूर्व विशेषणरूपसे रखना था, क्योंकि लक्ष्यके अनुसार लक्षणकी प्रवृत्ति देखी जाती है।
पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका काल सागरोपमशतपृथक्त्व ही है। शंका-पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंका सागरोपमशतपृथक्त्व काल कैसे जाना? समाधान-सूत्रमें यथासंख्य न्यायसे उपर्युक्त प्रमाण जाना जाता है । जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६९ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ॥७॥ अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय अपर्याप्त रहते हैं ।।७१।। ये दोनों सूत्र सुगम हैं।
कायमार्गणानुसार जीव पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजकायिक व वायुकायिक कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ७२ ॥
यह सूत्र भी सुगम है।
१ प्रतिषु 'पुवाणिवादो' इति पाठः।
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