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________________ १४२ छक्खंडागमे खुदाबंधी [२,२, ६५. उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं ॥६५॥ एदाणि दो वि सुत्ताणि सुगमाणि । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? ॥ ६६॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं ॥ ६७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण सागरोवमसहस्साणि पुबकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ६८ ॥ पंचिंदियाणं पुनकोडिपुत्तेणब्भहियसागरोवमसहस्साणि । एत्थ सागरोवमसहस्समिदि एगवयणेण होदव्यं, बहूणं सहस्साणमभावादो ? ण, सागरावेमेसु बहुत्त अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जीय विकलत्रय अपर्याप्त रहते हैं ॥६५॥ ये दोनों सूत्र सुगम हैं। जीव पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? ॥ ६६ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल व अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ॥ ६७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमसहस्र व सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक जीव क्रमशः पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त रहते हैं ।। ६८।। पंचेन्द्रिय जीवोंका काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपमप्रमाण होता है। शंका-इस सूत्रमें 'सागरोपमसहस्त्रं' ऐसा एक वचनात्मक निर्देश होना चाहिये था न कि बहुवचनात्मक, क्योंकि सामान्य पंचेन्द्रिय जीवोंके भवस्थितिकालमें भनेक सहस्र सागरोपम नहीं होते? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सहस्रमें नहीं किन्तु सागरोपमों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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