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________________ सत्प्ररूपणा सूत्र ९३ की चर्चा उठाते हैं कि तिथंच तो पांच प्रकारके होते हैं - सामान्य, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, तिर्यंचनी और अपर्याप्त । इनमेंसे किनके पांच गुणस्थान होते हैं यह सूत्रसे ज्ञात नहीं हो सका ? इसका वे समाधान इस प्रकार करते हैं न तावदपर्याप्तपंचेन्द्रियातयक्ष पंच गुणा सन्ति, लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासम्भवात् । तत्कुतोऽवगम्यते इति चेत् 'पंचिंदियतिक्खिअपज्ज तमिच्छाइट्टी दव्वपमाणेग केवडिया? 'असंखेज्जा' इति तत्रैकस्यैव मिथ्याष्टिगुणस्य संख्यायाः प्रतिपाइकार्षात् । शेषेषु पंचापि गुणस्थानानि सन्ति, अन्यथा तत्र पंचानां गुणस्थानानां संख्यादिप्रतिपादकद्रव्याद्यावस्याप्रामाण्यप्रसंगात् । ( पुस्तक १, पृ. २०८-२०९) इस शंका-समाधानसे ये बातें सुस्पष्ट हो जाती हैं कि सत्त्वप्ररूपणा और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणाओंका इस प्रकार अनुषंग है कि जिन जीवसमासोंका जिन गुणस्थानोंमें द्रव्यप्रमाण बतलाया गया है उनमें उन गुणस्थानोंका सत्त्व भी स्वीकार किया जाना अनिवार्य है, और यदि वह सत्व स्वीकार नहीं किया तो वह द्रव्य प्रमाण प्ररूपण ही अनार्ष हो जावेगा । यही बात द्रव्यप्रमाणके प्रारम्भमें भी कही गई है कि संपहि चोइसण्हं जीवसमासागमास्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहण? भूदबलियाइरियो सुत्तमाह । " (पुस्तक ३ पृ. १) अर्थात् जिन चौदह जीवसमासों का अस्तित्व शिष्योंने जान लिया है उन्हींका परिमाण बतलाने के लिये भूतबलि आचार्य आगे सूत्र कहते हैं । तात्पर्य यह कि मनुष्यनीके सत्वमें केवल पांच और द्रव्यप्रमाणादि प्ररूपणमें चौदह गुणस्थानोंके प्रतिपादनकी बात बन नहीं सकती। और यदि उनका द्रव्यप्रमाण चौदहों गुणस्थानोंमें कहा जाना ठीक है, तो यह अनिवार्य है कि उनके सत्त्वमें भी चौदहों गुणस्थान स्वीकार किये जाय । एक बात यह भी कही जाती है कि जीवट्ठाणकी सत्यरूपणा पुष्पदन्ताचार्य कृत है और शेष प्ररूपणायें भूतबलि आचार्य की । अतएव संभव है कि पुष्पदन्ताचार्यको भनुष्यनीके पांच ही गुणस्थान इष्ट हों । किन्तु यह बात भी संभव नहीं है, क्योंकि यदि उक्त सूत्रमें पांच गुणस्थान ही स्वीकार किये जाय तो उसका उसी सत्प्ररूंपणाके सूत्र १६४-१६५ से विरोध पड़ेगा जहां स्पष्टतः सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी, इन तीनोंके असंयत संयतासंयत व संयत, इन सभी गुणस्थानोंमें क्षायिक, वेदक और उपशम सम्यक्त्व स्वीकार किया गया है । यथा मणुसा असंजदसम्माइटि-संजदासंजद-संजदहाणे अस्थि खइयसम्माइट्ठी वेदयसम्माइट्वी उवलमसम्माइट्टी॥ एवं मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु ॥ १६४-१६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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