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________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना इन सूत्रोंके सद्भावमें स्वयं पुष्पदन्तकृत सत्प्ररूपणामें ही मनुष्यनीके संयंत गुणस्थान । व तीनों सम्यक्त्वोंका सद्भाव स्वीकार किया गया है। इन सब प्रमाणों व युक्तियोंसे स्पष्ट है कि सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में संयत पदका ग्रहण करना अनिवार्य है । यदि उसका ग्रहण नहीं किया जाय तो शास्त्रमें बड़ी विषमता और विरोध उत्पन्न हो जाता है । इस परिस्थितिमें यदि उसी सूत्र के आधार पर स्त्रियों के केवल पांच ही गुणस्थानों की मान्यता स्थिर की जाती है तो कहना पड़ेगा कि यह मान्यता एक स्खलित और त्रुटित पाठके आधारसे होने के कारण भ्रान्त और अशुद्ध है।) मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियों में जीवाणकी सत्प्ररूपणाके सूत्र ९३ में 'संजद' पाठ है। ऊपर बतलाया जा चुका है कि किस प्रकार उपलब्ध प्रतियोंमें उक्त सूत्रके अन्तर्गत 'संजद ' पाठ न होने पर भी सम्पादकोंने उसे ग्रहण करना आवश्यक समझा और उसपर उत्तरोत्तर विचार करनेपर भी उसके विना अर्यकी संगति बैठाना असम्भव अनुभव किया । किन्तु कुछ विद्वान् इस कल्पनापर वेहद रुष्ट हो रहे हैं और लेखों, शास्त्रार्थों व चर्चाओंमें नाना प्रकारके आक्षेप कर रहे हैं। प्रथम भागके एक सहयोगी सम्पादक पं. हीरालालजी शास्त्रीने तो प्रकट भी कर दिया है कि उस पाठके रखने में उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है। दूसरे सहयोगी पं. फूल चन्द्रजी शास्त्रीने उसके सम्बन्धमें कुछ भी न कहकर मौन धारण कर लिया है । इस कारण समालोचकोंने प्रधान सम्पादकको ही अपने क्रोध का एक मात्र लक्ष्य बना रखा है । इस परिस्थिति को देखकर प्रधान सम्पादकने मूडविद्रीकी ताडपत्रीय प्रतियोंसे उस सूत्रके पुनः सावधानीसे मिलान करानेका प्रयत्न किया । पुस्तक ३ के 'प्राक् कथन' व 'चित्र-परिचय' के पढ़नेसे पाठकोंको सुविदित हो ही चुका है कि मूडविदीमें धवलसिद्धान्तकी एक ही नहीं तीन ताड़पत्रीय प्रतियां हैं, यद्यपि इनमें की दोमें ताड़पत्र पूरे पूरे न होनेसे वे त्रुटित हैं । इन तीनों प्रतियोंका सावधानीसे अवलोकन करके श्रीयुत् पं. लोकनाथ जी शास्त्री अपने ता. २४.५-१५ के पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि " जीवट्ठाण भाग १ पृष्ठ नं. ३३२ में सूत्र ताड़पत्रीय मूलप्रतियोंमें इस प्रकार है । तत्रैव • शेषगुणस्थानविषयारेकापोहनार्थमाद- सम्मामिछाइट्टि-असंजदसम्माइट्टिसेजदासंजद संजदहाणे णियमा पजत्तियाओ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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