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विषय-परिचयः ___टीका वही है जो मुद्रित पुस्तकमें है। धवलाकी दो ताड़पत्रीय प्रतियोंमें सूत्र इसी प्रकार ' संजद ' पदसे युक्त है । तीसरी प्रतिमें ताड़पत्र ही नहीं है । पहले. संशोधन-मुकाविला करके भेजते समय भी लिखकर भेजा था। परन्तु रहा कैसा, सो मालूम नहीं पड़ता, सो जानियेगा।"
ताडपत्रीय प्रतियोंके इस मिलानपरसे पाठक समझ सकेंगे कि षखंडागमका पाठ संशोधन कितनी सावधानी और चिन्तनके साथ किया गया है। तीसरे भागकी प्रस्तावनामें हम लिख ही चुके थे कि उस भागमें हमने जिन १९ पाठोंकी कल्पना की थी उनमेंसे १२ पाठ जैसेके तैसे ताड़पत्रीय प्रतियोंमें पाये गये और शेष पाठ उनमें न पाये जाने पर भी शैली और अर्थकी दृष्टिसे उनका वहां ग्रहण किया जाना अनिवार्य है । अब उक्त सूत्रमें भी 'संजद' पाठ मिल जानेसे मर्मज्ञ पाठकोंको सन्तोष होगा और समालोचक विचार कर देखेंगे कि उनके आक्षेपादि कहां तक न्यायसंगत थे। जिनके पास प्रतियां हों उन्हें उक्त सूत्रमें संजद पाठ सम्मिलित करके अपनी प्रति शुद्ध कर लेना चाहिये ।
विषय परिचय
(पूर्व प्रकाशित छह पुस्तकोंमें षट्खंडागमका प्रथम खंड ' जीवट्ठाण ' प्रकट हो चुका है। प्रस्तुत पुस्तकमें दूसरा खंड 'खुद्दाबंध ' पूरा समाविष्ट है । इस खंडका विषय उसके नामसे ही सूचित हो जाता है कि इसमें क्षुद्र अर्थात् संक्षिप्तरूपसे बंध अर्थात् कर्मबन्धका प्रतिपादन किया गया है । पाठकोंको इस बृहत्काय ग्रंथमें बन्धका विवरण देखकर स्वभावतः यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि इसे क्षुद्र व संक्षिप्त विवरण क्यों कहा ! किन्तु संक्षिप्त और विस्तृत आपेक्षिक संज्ञाएं हैं । भूतबलि आचार्यने प्रस्तुत खंडमें बन्धक अनुयोगका व्याख्यान केवल १५८९ सूत्रोंमें किया है जब कि उन्होंने बंधविधानका विस्तारसे व्याख्यान छठवें खंड महाबन्धमें तीस हज़ार ग्रंथरचना रूपसे किया। इन्हीं दोनों खंडोंकी परस्पर विस्तार व संक्षेपकी अपेक्षासे छठा खंड. ' महाबन्ध ' कहलाया और प्रस्तुत खंड खुदाबंध या क्षुद्रकबन्ध ।
खुद्दाबन्धकी उत्पत्ति प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनाके पृ. ७२ पर दिखाई जा चुकी है और उसके विषय व अधिकारोंका निर्देश उसी प्रस्तावनाके पृष्ठ ६५ पर कर दिया गया है । उसके अनुसार बारहवें श्रुताङ्ग दृष्टिवादके चतुर्थ भेद पूर्वगतका जो दूसरा पूर्व, आग्रायणीय था उसकी पूर्वान्त आदि चौदह वस्तुओंमेंसे पंचम वस्तु ' चयनलाब्ध' के कृति आदि चौवीस
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