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________________ २, ३, ८४.1 एगजीवेण अंतराणुगमे इत्थि-पुरिसवेदाणमंतरं [ २१३ गदस्स तदुवलंभादो। वेदाणुवादेण इत्थिवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥८॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ८१॥ सुगमं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८२॥ कुदो ? इस्थिवेदादो णिग्गयस्स पुरिस-णqसयवेदेसु चेव भमंतस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरसरूवेणुवलंभादो। पुरिसवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८३॥ सुगमं । जहण्णण एगसमओ ॥ ८४ ॥ कुदो ? पुरिसवेदेणुवसमसेडिं चढिय अवगदवेदो होदूण एगसमयमंतरिय काल पाया जाता है। बेदमार्गणानुसार स्त्रीवेदी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८० ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण काल होता है ॥ ८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है ।। ८२ ॥ क्योंकि, स्त्रीवेदसे निकल कर पुरुषवेद या नपुंसकवेदमें ही भ्रमण करनेवाले जीवके आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तनरूप स्त्रीवेदका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। पुरुषवेदियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८३ ॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवेदियोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है ॥ ८४ ॥ क्योंकि, पुरुषवेद सहित उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो एक समय तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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