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________________ २१४ छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ३, ८५. बिदियसमए कालं काऊण पुरिसवेदेसुप्पण्णस्स एगसमयमेत्तरुवलंभादो । उकस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ८५॥ सुगमं । णवंसयवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८६ ॥ सुगमं । · जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ८७ ॥ खुद्दाभवग्गहणं किण्ण लब्महे ? )ण,) अपजत्तएसु खुद्दाभवग्गहणमेत्ताउद्विदिएसु णqसयवेदं मोतूण इत्थि-पुरिसवेदाणमणुवलंभादो, पज्जत्तएसु वि अंतोमुहुत्तं मोत्तूण खुद्दाभवग्गहणस्स अणुवलंभादो । उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं ॥ ८८ ॥ कुदो ? णqसयवेदादो णिग्गयस्स इस्थि-पुरिसवेदेसु चेत्र हिंडंतस्स सागरोवम पुरुषवेदका अन्तर करके दूसरे समयमें मरण कर पुरुषवेदी जीवों में उत्पन्न होनेवाले जीवके पुरुषवेदका एक समयमात्र अन्तर पाया जाता है। पुरुषवेदियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है॥ ८५ ॥ यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ८६ ॥ यह सूत्र सुगम है। नपुंसकवेदियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । ८७ ॥ शंका-नपुंसकवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण क्यों नहीं प्राप्त हो सकता ? समाधान नहीं हो सकता, क्योंकि क्षुद्रभवग्रहणमात्र आयुवाले अपर्याप्तक जीवोंमें नपुंसकवेदको छोड़ स्त्री व पुरुषवेद नहीं पाया जाता, और पर्याप्तकोंमें अन्तमुहूर्त के सिवाय क्षुद्रभवग्रहणमात्र काल नहीं पाया जाता। नपुंसकवेदियोंका उत्कृष्ट अन्तर सागरोपमशतपृथक्त्व होता है ॥ ८८ ॥ क्योंकि, नपुंसकवेदसे निकलकर स्त्री और पुरुष वेदोंमें ही भ्रमण करनेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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