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________________ २, ३, ९१. ] सदधत्तादो उवरि तत्थावद्वाणाभावादो । एगजीवेण अंतराणुगमे अवगदवेदाणमंतरं अवगदवेदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ८९ ॥ सुगमं । उवसमं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९० ॥ कुदो १ उवसमसेडीदो ओयरिय सव्वजहणमंतोमुहुत्तं सवेदी होणंतरिय पुणो उवसमसेडिं चडि अवेदत्तं गयस्स तदुवलंभादो । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं ॥ ९१ ॥ कुदो ? अणादियामिच्छाइट्ठिस्स तिणि वि करणाणि काऊण अद्धपोग्गलपरियडूस्सादिसमए सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण अंतोमुहुत्तमच्छिय उवसमसेडिं चडिय अवगदवेदो होण हेट्ठा ओयरिय सवेदो होदूण अंतरिय उबड्डपोग्गलपरियङ्कं भमिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे उवसमसेडिं चढिय अवगदवेदो होदूण अंतरं समानिय पुणेो जीवके सागरोपमशतपृथक्त्वसे ऊपर वहां रहना संभव नहीं है । [ २१५ अगदी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ।। ८९ ।। यह सूत्र सुगम है । उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र होता है ॥ ९० ॥ क्योंकि, उपशमश्रेणीसे उतरकर सबसे कम अन्तर्मुहूर्तमात्र संवेदी होकर अपगतवेदित्वका अन्तर कर पुनः उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदभावको प्राप्त होनेवाले जीवके अपगतवेदित्वका अन्तर्मुहूर्तमात्र अन्तर पाया जाता है । उपशमकी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपीरवर्तनप्रमाण होता है ॥ ९१ ॥ Jain Education International क्योंकि, किसी अनादिमिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके अर्धपुलपरिवर्तके आदि समय में सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण किया और अन्तर्मुहूर्त रहकर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी होगया। वहांसे फिर नीचे उतरकर सवेदी हो अपगतवेदका अन्तर प्रारंभ किया और उपार्धपुद्गल परिवर्तप्रमाण भ्रमण कर पुनः संसारके अन्तर्मुहूर्तमात्र शेष रहनेपर उपशमश्रेणीको चढ़कर अपगतवेदी हो अन्तरको समाप्त किया । पश्चात् फिर नीचे उतरकर क्षपकश्रेणीको चढ़कर अबन्धकभाव For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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