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२१६] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[ २, ३, ९२. तत्तो ओयरिय खवगसेडि चडिय अबंधभावं गयस्स तदुवलंभादो ।
खवगं पडुच्च णत्थि अंतरं णिरंतरं ॥ ९२ ॥ ... कुदो ? खवगाणमवगदवेदाणं पुणो वेदपरिणामाणुप्पत्तीदो ।
कसायाणुवादेण कोधकसाई-माणकसाई-मायकसाई-लोभकसाई णमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९३ ॥
सुगमं । जहण्णेण एगसमओ ॥ ९४ ॥
कुदो ? कोधेण अच्छिय माणादिगदबिदियसमए वाघादेण, कालं कादूण णेरइएसु उप्पादेण वा, आगदकोधोदयस्स एगसमयअंतरुवलंभादो । एवं चेव सेसकसायाणमेगसमयअंतरपरूवणा कायव्वा । णवरि वाघादे अंतरस्स एगसमओ णस्थि, वाघादे कोधस्सेव उदयदंसणादो। किंतु मरणेण एगसमओ वत्तबो, मणुस्स-तिरिक्ख-देवेसुप्पण्णपढमसमए माण-माया-लोहाणं णियमेणुदयदंसणादो ।
प्राप्त किया । ऐसे जीवके अपगतवेदित्वका कुछ क्रम अर्धपुद्गलपरिवर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है।
क्षपककी अपेक्षा अपगतवेदी जीवोंका अन्तर नहीं होता, निरन्तर है ॥ ९२ ॥
क्योंकि, क्षपकश्रेणी चढ़नेवालोंके एक वार अपगतवेदी होजानेपर पुनः वेदपरिणामकी उत्पत्ति नहीं होती।
कषायमार्गणानुसार क्रोधकषायी, मानकषायी, मायाकषायी और लोभकषायी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ९३ ॥
यह सूत्र सुगम है। क्रोधादि चार कषायी जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय होता है ॥ ९४ ॥
क्योंकि, क्रोधकषायमें रहकर मानादिकषायमें जानके दूसरे ही समयमें व्याघातसे अथवा मरणकर नारकी जीवोंमें उत्पत्ति होजानेसे क्रोधोदय सहित जीवके क्रोधकषायका एक समयमात्र अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार शेष कषायोंके भी अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये। केवल विशेषता यह है कि मानादि कषायोंके व्याघातके द्वारा एक समयप्रमाण अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि व्याघात होनेपर क्रोधका ही उदय देखा जाता है। किन्तु मरणके द्वारा मानादिकषायोंका एक समयप्रमाण अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि मनुष्य, तिर्यंच व देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके प्रथम समयमें क्रमशः मान, माया व लोभका नियमसे उदय देखा जाता है।
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