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________________ २, ३, ९८. ] एगजीवेण अंतराणुगमे मदि- सुदअण्णाणीणमंतरं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ॥ ९५ ॥ अप्पिदकसायादो अणपिदकसायं गंतणुक्कस्समं तो मुहुत्तमच्छिय अप्पिदकसायमागदस्त तदुवलंभादो । अकसाई अवगदवेदाण भंगो ॥ ९६ ॥ [ २१७ कुदो ? ( उवसमं पडुच्च ) जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरिय; खवगं पडुच णत्थि अंतरमिच्चेदेहि तत्तो भेदाभावादो । णाणाणुवादेण मदिअण्णाणी सुदअण्णाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ९७ ॥ सुगमं । जहणेण अंतोमुत्तं ॥ ९८ ॥ कुदो ? मदि-सुदअण्णाणेहिंतो सम्मतं घेतूण सण्णाणेसु जहण्णकालमंतरिय पुणे क्रोधादि चार कषायी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तमात्र है ॥ ९५ ॥ क्योंकि, विवक्षित कषायसे अविवक्षित कषायमें जाकर अधिक से अधिक अन्तमुहूर्तप्रमाण रहकर विवक्षित कषायमें आये हुए जीवके उस कषायका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त होता है । अकषायी जीवोंका अन्तर अपगतवेदी जीवोंके समान होता है ॥ ९६ ॥ क्योंकि, ( उपशमकी अपेक्षा ) जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुलपरिवर्त अकषायी जीवोंके भी होता है । क्षपककी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है । इस प्रकार अकषायी और अपगतवेदी जीवोंकी अन्तर- प्ररूपणामें कोई भेद नहीं है । ज्ञानमार्गणानुसार मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ९७ ॥ Jain Education International यह सूत्र सुगम है । मतिअज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है ॥ ९८ ॥ क्योंकि, मतिअज्ञान व श्रुतअज्ञान से सम्यक्त्व ग्रहणकर मतिज्ञान व श्रुत ज्ञानमें आकर कमसे कम कालका अन्तर देकर पुनः मतिअज्ञान व श्रुतअज्ञान भावमें गये For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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