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________________ २, १, ५६.] सामित्ताणुगमे दंसणमग्गणा वाहिज्जदि ति चे? सच्चं ण बाहिज्जदि जच्चा जुत्ती, किंतु इमा बाहिज्जदि जच्चत्तामावादो। तं जहा- ण णाणेण विसेसो चेत्र घेप्पदि सामण्ण-विसेसप्पयत्तणेण पत्तजच्चंतरदव्वुवलंभादो । ण च णयदुवविसयमगेण्हंतस्स णाणस्स सायारत्तमत्थि, विरोहादो (तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं विधिर्विषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणमत्रान्यतरत्प्रधानं । गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयःस' दृष्टांतसमर्थनस्ते ॥ इति ॥ १८ ॥) ण च एवं संते दसणस्स अभावो, बज्झत्थे मोत्तूण तस्स अंतरंगत्थे वावारादो। ण च केवलणाणमेव सत्तिदुवसंजुत्तत्तादो बहिरंतरंगत्थपरिच्छेदयं, णाणस्स पज्जयस्स पज्जायाभावादो। भावे वा अणवत्था ढुक्कदे, अवठ्ठाणकारणाभावादो । तम्हा अंतरंगोवजोगादो बहिरंगुवजोगेण पुधभूदेण होदयमण्णहा सव्वण्हुत्ताणुववत्तीदो । अंतरंग समाधान-सचमुच ही आगमसे उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होती, किन्तु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है, क्योंकि, वह उत्तम युक्ति नहीं है । वह इस प्रकार है- ज्ञान द्वारा केवल विशेषका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, सामान्य विशेषात्मक होनेसे ही द्रव्यका जात्यन्तर स्वरूप पाया जाता है। और सामान्य तथा विशेष दोनों नयों के विषयभूत पदार्थका ग्रहण न करनेसे ज्ञानका साकारत्व भी नहीं बन सकता, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध आता है। तथा समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है (हे श्रेयांस जिन!) आपके मतमें द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव, इन स्व-चतुण्यकी अपेक्षा किये जानेवाले विधानका स्वरूप परचतुष्टयकी अपेक्षासे होनेवाले प्रतिषेधसे सम्बद्ध पाया जाता है। विधि और प्रतिषेध, इन दोनोंमेंसे जो एक प्रधान होता है वही प्रमाण है, और दूसरा गौण है। इनमें जो प्रधानताका नियामक है वही नय है जो रशान्तका अर्थात् धर्मविशेषका समर्थन करता है ॥ १८ ॥ इस प्रकार आगम और युक्तिसे दर्शनका अस्तित्व सिद्ध होने पर उसका अभाव नहीं माना जा सकता, क्योंकि, दर्शनका व्यापार बाह्य पदार्थो को छोड़ अन्तरंग वस्तुमें होता है। यहां यह नहीं कह सकते कि केवलज्ञान ही दो शक्तियोंसे संयुक्त होनेके कारण बहिरंग और अन्तरंग दोनों वस्तओंका परिच्छेदक है, क्योंकि, ज्ञान स्वयं पक पर्याय है, और पर्यायमें दूसरी पर्याय होती नहीं है । यदि पर्यायमें भी और पर्याय मानी जाय तो अवस्थानका कोई कारण न होनेसे अनवस्था दोष उत्पन्न होता है। इसलिये अन्तरंग उपयोगसे बहिरंग उपयोगको पृथग्भूत ही होना चाहिये, अन्यथा सर्वज्ञत्वकी उपपत्ति नहीं बनती। अतएव आत्माको अन्तरंग उपयोग और बहिरंग उपयोग ऐसी १ प्रतिषु विषित्तः' इति पाठः । ३हत्स्वयंभूस्तोत्र ५२. २ प्रतिषु । -नयस्य ' इति पाठः । ४ प्रतिषु बहिरंगत्थपरिच्छेदयं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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