________________
छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, १, ५६. एत्थ परिहारो उच्चदे- अत्थि दसणं, सुत्तम्मि अट्ठकम्मणिदेसादो। ण चासते आवरणिज्जे आवारयमत्थि, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो । ण चोवयारेण सणावरणणिद्देसो, मुहियस्साभावे उवयाराणुववत्तीदो। ण चावरणिज्ज णत्थि, चक्खुदंसणी अचक्खुदसणी ओहिदंसणी खओवसमियाए, केवलदंसणी खड्याए लद्धीए त्ति तदत्थित्तपदुप्पायणजिणवयणदंसणादो ।
ओ मे सस्सदो अप्पा णाण-दंसणलक्खणो । सेसा में बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ १६ ॥ असरीरा जीवघणा उवजुत्ता दंसणे य णाणे य ।
सायारमणायारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ १७ ॥ . इच्चादिउवसंहारसुत्तदंसणादो च । आगमपमाणेण होदु णाम दंसणस्स अत्थितं ण जुत्तीए चे ? ण, जुत्तीहि आगमस्स बाहाभावादो । आगमेण वि जच्चा जुत्ती ण
समाधान-अब यहां उक्त शंकाका परिहार कहते हैं - दर्शन है, क्योंकि, सूत्रमें आठ काँका निर्देश किया गया है । आवरणीयके अभावमें आवारक हो नहीं सकता, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। यह भी नहीं कह सकते कि दर्शनावरणका निर्देश केवल उपचारसे किया गया है, क्योंकि, मुख्य वस्तुके अभावमें उपचारकी उपपत्ति नहीं बनती। आवरणीय है ही नहीं सो बात भी नहीं है, क्योंकि, 'चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी और अवधिदर्शनी क्षायोपशमिक लद्धिसे तथा केवलदर्शनी क्षायिक लद्धिसे होते हैं' ऐसे आवरणीयके अस्तित्वका प्रतिपादन करनेवाले जिन भगवान् के वचन देखे जाते हैं। तथा
ज्ञान और दर्शनरूप लक्षणवाला मेरा एक आत्मा ही शाश्वत है। शेष समस्त संयोगरूप लक्षणवाले पदार्थ मुझसे बाह्य हैं ॥ १६ ॥
अशरीर अर्थात् काय रहित, शुद्ध जीवप्रदेशोंसे घनीभूत, दर्शन और शानमें मनाकार व साकार रूपसे उपयोग रखनेवाले, यह सिद्ध जीवोंका लक्षण है ॥ १७॥
इस प्रकारके अनेक उपसंहारसूत्र देखनेसे भी यही सिद्ध होता है कि दर्शन है।
शंका-आगम प्रमाणसे भले ही दर्शनका अस्तित्व हो, किन्तु युक्तिसे तो पर्शनका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता?
समाधान होता है, क्योंकि, युक्तियोंसे आगमकी बाधा नहीं होती। शंका-आगमसे भी तो जात्य अर्थात् उत्तम युक्तिकी बाधा नहीं होना चाहिये!
१ प्रतिषु चोवयारे 'इति पाम।
२ करतौ 'जे' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org