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२, ६, १४.]
खेत्ताणुगमे मणुस्सखेत्तपरूवणं समुग्धादे पडुच्च खेत्तपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
असंखेज्जेसु वा भाएसु सव्वलोगे वा ॥ १२ ॥
पदरसमुग्घादे लोयस्स असंखेज्जेसु भागेसु अट्ठाणं होदि, वादवलएसु जीवपदेसाणमभावादो। लोगपूरणसमुग्घादे सबलोगे अवट्ठाणं होदि, जीवपदेसविरहिदलोगागासपदेसाभावादो । अधवा सचमेदमेकं चेव सुत्तमेक्कस्स समुग्घादगदस्स तिसु अवट्ठाणेसु खेत्तभेदपदुप्पायणादो।
मणुसअपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्घादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १३॥
सुगममेदं । लोगस्स असंखेज्जदिभागे ॥ १४ ॥
एदं देसामासियसुतं, तेणेदेण सूचिदत्थपरूवणं कस्सामो तं जहा-सत्थाण. वेदण-कसायसमुग्धादगदा चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे, माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागे
लोकपूरण समुद्धातों की अपेक्षा कर क्षेत्रनिरूपणके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
समुद्घातकी अपेक्षा उक्त तीन प्रकारके मनुष्य लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं ॥ १२ ॥
प्रतरसमुद्घातकी अपेक्षा लोकके असंख्यात बहुभागोंमें अवस्थान होता है, क्योंकि, वातवलयोंमें जीवप्रदेशोंका अभाव रहता है। लोकपूरणसमुद्घातकी अपेक्षा सर्व लोकमें अवस्थान होता है, क्योंकि, इस अवस्थामें जीवप्रदेशोंसे रहित लोकाकाशके प्रदेशोंका अभाव है। अथवा यह सब एक ही सूत्र है, अर्थात् उपर्युक्त दोनों सूत्र भिन्न नहीं है, किन्तु एक ही सूत्ररूप हैं, क्योंकि, एक केवलि समुद्घातगत जीवकी तीन अवस्थाओं में क्षेत्रभेदका कथन करते हैं ।
मनुष्य अपर्याप्त स्वस्थान, समुद्घात और उपपादकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १३ ॥
यह सूत्र सुगम है।
मनुष्य अपर्याप्त उपर्युक्त तीन पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं ॥ १४ ॥
यह देशामर्शक सूत्र है, इसलिये इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस पृकार है- स्वस्थान, वेदनासमुद्घात और कषायसमुद्घातको प्राप्त मनुष्य अपर्याप्त चार लोकोंके असंख्यातवें भागमें तथा मानुषक्षेत्रके संख्यातवें भागमें संचित
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