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________________ २, ३, ६१.] एगजीवण अंतराणुगमे मण-वचिजोगीणमंतर । २०५ जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५९॥ सुगमे । जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ६॥ कुदो ? मणजोगादो कायजोगं वचिजोगं वा गंतूण सव्वजहण्णमंतोमुहुतमच्छिय पुणो मणजोगमागदस्स जहण्णेणंतोमुहुत्तरुवलंभादो । सेसचत्तारिमणजोगीणं पंचवचिजोगीणं च एवं चेव अंतरं परूवेयव्वं, भेदाभावादो। एत्थ एगसमओ किण्ण लब्भदे ? ण, वाघादिदे मुदे वा मण-वचिजोगाणमणंतरसमए अणुवलंभादो । उक्कस्सेण अगंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरिय ॥ ६१ ॥ योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी औरपांच वचनयोगी जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५९ ॥ यह मूत्र सुगम है। कमसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका अन्तर होता हैं ॥ ६ ॥ क्योंकि, मनयोगसे काययोग अथवा वचनयोगमें जाकर सबसे कम अन्तमुहूर्तमात्र रहकर पुनः मन योगमें आनेवाले जीवके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण जघन्य अन्तर पाया जाता है। शेष चार मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका भी इसी प्रकार अन्तर प्ररूपित करना चाहिये, क्योंकि इस अपेक्षासे उन सबमें कोई अन्तर नहीं है। शंका-इन पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंका एक योगसे दूसरे में जाकर पुनः उसी योगमें लौटनेपर एक समयप्रमाण अन्तर क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान- नहीं पाया जाता, क्योंकि जब एक मनयोग या वचनयोगका विधात हो जाता है, या विवक्षित योगवाले जीवका मरण हो जाता है, तब केवल एक समय के अन्तरसे पुनः अनन्तर समयमें उसी मनयोग या वचनयोगकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ___ अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक पांच मनोयोगी और वचनयोगी जीवोंका अन्तर होता है । ६१ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only •www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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