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________________ २०४] छक्खंडागमै खुद्दांबंधी [२, ३. ५५. ___ उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियढें ॥५५॥ कुदो ? अप्पिदवणप्फदिकाइएहिंतो णिग्गयस्स अणप्पिदणिगोदजीवादिसु भमंतस्स अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टेहिंतो अहियअंतराणुवलंभादो । तसकाइय-तसकाइयपज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५६ ॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ५७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियढें ॥ ५८ ॥ कुदो ? अप्पिदतसकाइएहितो णिग्गंतूण अणप्पिदवणप्फदिकाइयादिसु आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणमंतरसण्णियाणमुवलंभादो । अधिकसे अधिक अढाई पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण वादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५५ ॥ ___ क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायिक जीवों में से निकलकर अविवक्षित निगोद आदि जीवों में भ्रमण करनेवाले जीवके अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तोसे अधिक अन्तरकाल नहीं पाया जा सकता। सकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५६ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक उक्त त्रसकायादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक सकायादि उक्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५८ ॥ क्योंकि, विवक्षित त्रसकायिक जीवोंमेंसे निकलकर अविवक्षित वनस्पतिकायादि जीवें में आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण पुद्गलपरिवर्तीका अन्तरकाल पाया जाता है। १ अ-आप्रत्योः । -मंतरसण्णिधाण.' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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