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________________ २, ३, ५४.] एगजीवेण अंतराणुगमे बादरवणप्फदिकाइयाणमंतर [२०३ सुगम । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥५१॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा ॥५२॥ कुदो ? अप्पिदवणफदिकायादो णिग्गयस्स अणप्पिदपुढवीकायादिसु चव हिंडंतस्स असंखेज्जलोगं मोत्तूण अण्णस्स अंतरस्स असंभवादो । सेसं सुगम।। बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥ ५३॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥५४॥ एदं पि सुगमं । यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्र भवग्रहणमात्र काल तक उक्त वनस्पतिकायिक निगोद जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक उक्त वनस्पतिकायिक निगोद जीवोंका अन्तर होता है ।। ५२ ॥ क्योंकि, विवक्षित वनस्पतिकायसे निकलकर अविवक्षित पृथिवीकायादिकों में ही भ्रमण करनेवाले जीवके असंख्यात लोकप्रमाण कालको छोड़कर अन्य प्रमाण अन्तर होना असंभव है । शेष सूत्रार्थ सुगम है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५३ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ५४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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