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________________ २०२] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ३, ४७. ज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टणे विरोहाभावादो । कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥४७॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥४८॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ ४९॥ कुदो ? अप्पिदकायं मोत्तूण अणप्पिदेसु वणप्फदिकायादिसु आवलियाए असंखेजदिभागमेत्तपोग्गलपरियट्टाणि परियट्टिएं संभवोवलंभादो । वणप्फदिकाइयणिगोदजीवबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥५०॥ आदि जीवों में आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करने में कोई विरोध नहीं आता। कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, अपकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, चादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ॥४७॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक पृथिवीकायिक आदि उक्त जीवोंका अन्तर होता है ॥४८॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक उक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४९॥ __ क्योंकि, विवक्षित कायको छोड़कर अविवक्षित वनस्पतिकाय आदि जीवोंमें आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन भ्रमण करना संभव है। वनस्पतिकायिक निगोद बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ५०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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