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२, ३, ४६.] एगजीवेण अंतराणुगमे वियलिंदिय-सयालिंदियाणमंतर [२०१ द्विदीदो उपरि अबढाणाभावादो । तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पि एदम्हादो अंतरादो अहियमंतरं होदि, अणप्पिदमुहुमेइंदिएसु वि संचारोवलंभादो । किंतु तो वि अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेतं चैव अंतरं होदि, अण्णोवएसाभावादो ।
बीइंदिय-तीइंदिय-चरिंदिय-पंचिंदियाणं तस्सेव पज्जत्त-अपज्जताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?॥ ४४ ॥
सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४५ ॥ सुगम । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियटुं ॥ ४६॥ कुदो ? अप्पिदइंदिएहितो' णिग्गयस्म अणप्पिदएइंदियादिसु आवलियाए असंखे
जीवके बादर एकेन्द्रियकी स्थितिसे (जो कि उपर्युक्त प्रमाण है) ऊपर वहां रहनेका अभाव है। उक्त जीवोंके पर्याप्त व अपर्याप्तका ( अलग अलग) अन्तर यद्यपि पूर्वोक्त प्रमाणसे अधिक होता है, क्योंकि, उन जीवोंका अविवक्षित सूक्ष्म एकेन्द्रियों में भी संचार पाया जाता है । किन्तु फिर भी अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग ही होता है, क्योंकि इस प्रमाणसे अधिक प्रमाणका अन्य कोई उपदेश पाया नहीं जाता।
द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका तथा उन्हींके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४४ ॥
यह सूत्र सुगम है।
कमसे कम क्षुद्रभवग्रहण काल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४५ ॥
यह सूत्र सुगम है।
अधिकसे अधिक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अनन्त काल तक उक्त द्वीन्द्रियादि जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४६॥
क्योंकि, विवक्षित इन्द्रियोंवाले जीवों से निकल कर अविवक्षित एकेन्द्रिय
१ प्रतिषु अप्पिदेइंदिएहिंतों' इति पाठः ।
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