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________________ २०. छक्खंडागमे खुद्दाबंधो [२, ३, ४१. वलंभादो । होदु णाम पुघिल्लंतरादो इमस्स अंतरस्स अइमहल्लतं, तो वि एदेसिमंतरकालो पुबिल्लंतरकालोव्व असंखेज्जलोगमेत्तो चेव, णाणतो । कुदो ! अणंततरुवदेसाभावादो। सुहुमेइंदिय-पज्जत-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ॥४१॥ सुगमं । जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ ४२ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ ॥४३॥ कुदो ? सुहुमेइंदिएहितो णिग्गयस्स बादरेइंदिएसु चेत्र भमंतस्स बादरेइंदिय .......................... आधिक बड़ा अन्तरकाल प्राप्त हो सकता है ? समाधान-पूर्वोक्त अन्तरसे यह पर्याप्तक व अपर्याप्तकोंका अलग अलग प्राप्त अन्तर अधिक बड़ा भले ही हो जावे, पर तो भी इन पर्याप्त व अपर्याप्त एकेन्द्रिय बादर जीवोंका अन्तर पूर्वोक्त अन्तरकालके समान असंख्यात लोकप्रमाण ही रहेगा, अनन्त नहीं हो सकता, क्योंकि, बादर एकेन्द्रिय जीवोंके अनन्त कालप्रमाण अन्तरका उपदेश ही नहीं है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? ॥ ४१ ॥ यह सूत्र सुगम है। कमसे कम क्षुद्र भवग्रहण काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४२ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। अधिकसे अधिक अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण असंख्यातासंख्यात अबसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका अन्तर होता है ॥ ४३ ॥ क्योंकि, सूक्ष्म एकेन्द्रियोंसे निकलकर बादर एफेन्द्रियों में ही भ्रमण करनेवाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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