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________________ २, ६, १९. ] खेत्तागमे एइंदियखेत्तपरूवणं [ ३२१ जाहार- केवलिसमुग्धादा णत्थि । हुमेईदिएसु वेउव्वियसमुग्धादो वि णत्थि । सेसं सुगमं । सव्वलोगे ॥ १९ ॥ एसो लोयसद्दो सेस लोगाणं सूचओ, देसामासियत्तादो । तेणेदेण सूचिदत्थस्स पवणं कस्समो । सत्याण- वेयण कसाय मारणंतिय उववादपरिणदा एइंदिया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता य सच्चलोगे, आणंतियादो । वेउब्वियसमुग्धादगदा एइंदिया चदुण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे । माणुसखेत्तं ण विण्णायदे | तं जहा • वेउच्त्रियमुट्ठाता सव्वहुमईदिए णत्थि, साभावियादो । बादरेइंदियपज्जत्तएस चेत्र अस्थि । ते वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता । तत्थेक्कजीवोगाहणा उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो | तस्स को पडिभागो ? पलिदोत्रमस्स असंखेज्जदिभागो । जदि उब्वियरासीदो गुल भागहारो संखेज्जगुणो होज्ज तो वेउन्चियखेत्तं माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो, विरोध है । तैजससमुद्घात, आहारकसमुद्घात और केवलिसमुद्घात एकेन्द्रियों में नहीं है । सुक्ष्म एकेन्द्रियोंमें वैक्रियिकसमुद्घात भी नहीं है । शेष सूत्रार्थ सुगम है । उपर्युक्त एकेन्द्रिय जीव उक्त पदोंसे सर्व लोक में रहते हैं ।। १९ ।। यह लोक शब्द शेष लोकोंका सूचक है, क्योंकि, देशामर्शक है । इस कारण इसके द्वारा सूचित अर्थकी प्ररूपणा करते हैं - स्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कपायसमुदघात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद, इन पदोंसे परिणत एकेन्द्रिय व उनके पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीव सर्व लोक में रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं । वैक्रियिकसमुद्घातको प्राप्त एकेन्द्रिय जीव चार लोकोंके असंख्यातवें भाग में रहते हैं । मानुषक्षेत्रकी अपेक्षा कितने क्षेत्रमें रहते हैं, यह जाना नहीं जाता। वह इस प्रकार है- वैक्रियिकसमुद्घातको करनेवाले जीव सर्व सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें नहीं है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उक्त समुद्घातको करनेवाले एकेन्द्रिय जीव बादर एकेन्द्रियोंमें ही होते हैं । वे भी पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हैं । उनमें एक जीवकी अवगाहना उत्सेधघनांगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । शंका Jain Education International - उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान - पल्योपमका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है । यदि वैकिकिराशिसे घनांगुलका भागहार संख्यातगुणा है, तो वैक्रियिकक्षेत्र मानुषक्षेत्र के संख्यातवें भागप्रमाण होगा, अथवा यदि वह भागहार वैक्रियिकराशिसे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001401
Book TitleShatkhandagama Pustak 07
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1945
Total Pages688
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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