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३२.] छक्खंडागमे खुद्दाबंधो
[२, ६, १८. बम्हे य लांतवे वि य कप्पे खलु होति पंच रयणीयो । चत्तारि य रयणीयो सुक्क-सहस्सारकप्पेसु ॥ ३ ॥ आणद-पाणदकप्पे आहुट्टाओ हवंति रयणीयो।। तिण्णेव य रयणीओ तहारणे अच्चुदे चेय ॥ ४ ॥ हेट्ठिमगेवज्जेसु अ अड्ढाइब्जाओ होंति रयणीओ । मज्झिमगेवजेसु अ रयणीओ होंति दो चेय ॥ ५ ॥ उवरिमगेवज्जेसु अ दिवड्ढरयणीओ होदि उस्सेहो ।
अणुत्तरत्रिमाणवासीया रयणी मुणेयव्या ॥ ६ ॥ सेसं सुगमं ।
इंदियाणुवादेण एइंदिया सुहुमेइंदिया पज्जत्ता अपज्जत्ता सत्थाणेण समुग्धादेण उववादेण केवडिखेत्ते ? ॥ १८ ॥
एत्थ एईदिएसु विहारवदिसत्थाणं णस्थि, थावराणं विहारभावविरोहादो ।
ब्रह्म व लान्तव कल्पमें पांच, तथा शुक्र व सहस्रार कल्पों में चार रलिप्रमाण उत्सेध है ॥३॥
आनत-प्राणत कल्पमें साढ़े तीन रत्नि, और आरण व अच्युत कल्पमें एक रलिप्रमाण शरीरकी उंचाई जानना चाहिये ॥ ४ ॥
अधस्तन अवेयकोंमें अढ़ाई रत्नि, और मध्यम अवेयकोंमें दो रत्निप्रमाण शरीरकी उंचाई है ।। ५॥
उपरिम प्रैवेयकोंमें डेढ़ रत्नि, तथा अनुत्तर विमानवासी देवोंके शरीरकी उंचाई एक रत्निप्रमाण जानना चाहिये ॥६॥
शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इन्द्रियमार्गणानुसार एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, मूक्ष्म एफेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव स्वस्थान, समुद्घात और उपपादसे कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? ॥ १८ ॥
यहां एकेन्द्रियों में विहारवत्स्वस्थान नहीं होता, क्योंकि, स्थायरोंके विहारका
१ अप्रतौ चेया', आ-काप्रत्योः । चेण ' इति पाठः ।
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